सपनों का मर जाना

 विजय शंकर पांडेय 




भारत में हर पांच मिनट में एक सपना मरता है—किसी गरीब का। लेकिन हर दो मिनट में एक अमीर नया सपना खरीद लेता है, वो भी ईएमआई नहीं, कैश में! 


समाज के इस इकोनॉमिक सर्कस में तीन किरदार हैं—अमीर जो रिंग मास्टर है, गरीब जो जोकर है, और मिडिल क्लास जो टिकट खरीदकर चुपचाप ताली बजाता है। ऑक्सफैम ने कहा, “असमानता बढ़ रही है।” सरकार बोली, “हमें भरोसा है कि विकास की गंगा सबको भिगोएगी।” मगर गरीब अभी भी अपनी बाल्टी लिए किनारे खड़ा है—गंगा तो आई, मगर अमीर अपने प्राइवेट डैम बना चुके थे। 



 एक समय था जब अमीरों की पहचान बंगले और मर्सिडीज़ से होती थी, अब पहचान है कि उनके घर के कुत्ते भी एयरप्यूरिफायर में सांस लेते हैं। वहीं गरीब की पहचान है—आंगन में बासी रोटी और बिजली का ‘आ सकता है’ वाला वादा। 

 

बड़ी कंपनियां छोटे दुकानदारों को ऐसे निगल रही हैं, जैसे मोतीचूर का लड्डू। मोहल्ले की किराना दुकान अब इतिहास की किताबों में मिलेगी—"एक समय था जब लोग 'उधार' मांग सकते थे।" 


जाति, धर्म और क्षेत्र के झगड़ों में समाज वैसे ही बंटा हुआ था, अब आर्थिक बंटवारा आया है। फर्क इतना है कि पहले लोग मंदिर-मस्जिद पर लड़ते थे, अब मॉल और मेट्रो स्टेशन के बाहर भीख मांगते दिखते हैं। "सबका साथ, सबका विकास" कितना हुआ, आप बेहतर जानते हैं। हां, ‘साहूकार का विकास’ छप्पर फाड़ कर जरूर हुआ। 


शेयर बाजार बढ़ रहा है, GDP बढ़ रही है, पर गरीब की थाली में दाल घट रही है। सरकार गरीबों को ‘मुफ्त’ योजनाओं का झुनझुना थमा रही है, और अमीरों को ‘छूट’ की शहनाई बजा रही है। एक टॉप बिजनेसमैन ने कहा, "हम तो सिर्फ अवसर पैदा कर रहे हैं।" 


गरीब बोला, "हां साहब, भूख के अवसर!" जब भी कोई inequality की बात करता है, टीवी चैनल राष्ट्रभक्ति की चाशनी में भटका देते हैं। "देखिए, पड़ोसी देश ने क्या किया!" लेकिन अपने मोहल्ले के मजदूर की कहानी किसी को नहीं सुननी। अंत में, समाज में बड़ा कौन है, इसका पैमाना सिर्फ एक है—बैंक बैलेंस। इंसानियत, समानता, और गरिमा? वो तो अब सिर्फ NGO के पोस्टर में मिलती है। 


और गरीब? वो अब भी हर बजट के बाद यही सोचता है—शायद इस बार कुछ बदलेगा। और अगली सुबह वही पुराना ‘श्रमिक भारत’ फिर अपनी साइकिल उठाकर निकल पड़ता है, विकास के पीछे... जो अब हेलीकॉप्टर में बैठ चुका है।







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