आंखों से देख बता देंगे कि हड्डी टूटी है या सपना...

 विजय शंकर पांडेय 



कहा तो जाता हैं कि पूरे यूपी का सर्वांगीण विकास हो रहा है। मगर इकोनॉमिक सर्वे कुछ और ही बयां कर रहा है। यूपी में ही एक नोएडा है, जहां पैसे की बारिश होती है, और दूसरा बलिया, जहां लोग बारिश में भीगते हुए रोज़गार की तलाश में पलायन कर जाते हैं। नोएडा की प्रति व्यक्ति आय 10 लाख रुपये से ऊपर, और बलिया? 47,067 रुपये! बलिया वाले खूब अगराएंगे तो कहेंगे– "कमासुत बहरवासु हमारे भी घर के हैं, कभी कभार खोज खबर ले लेते हैं। 



ये तो ऐसा हैं, जैसे नोएडा में लोग आईफोन खरीद रहे हों, और बलिया में लोग अभी भी नोकिया 1100 के रिंगटोन पर थिरक रहे हों। या यूं कहिए नोएडा में बच्चे रोते नहीं, टैबलेट पर टच करके माँ को कॉल कर लेते हैं। बलिया में बच्चे अभी भी 'मोबाइल' को ऐसे देखते हैं, जैसे पड़ोसी के लड़के को अमेरिका जाते देख रहे हों। यहां रोजगार के नाम पर दो ही विकल्प हैं — या तो मुंबई-दिल्ली चलो या फिर सूरत। 


जो रुक गया, वो या तो कोचिंग खोल लेता है, या चाय की दुकान। बाकी के लिए रोज़गार के नाम पर खेत, खलिहान और ख्वाब हैं। फैक्ट्रियां? वो तो बस नेताओं के वादों में खुलती हैं। फिलहाल गुजरात की तर्ज पर पेट्रोल-डीजल की गमक का लुत्फ उठा रहे हैं। शिक्षा? स्कूलों में बच्चे 'A for Apple' सीखते हैं, पर टैबलेट तो दूर, बहुतेरे कॉपी किताब तक को तरसते हैं। 


स्वास्थ्य? कायदे के अस्पताल नहीं। डॉक्टर की जगह झोलाछाप दवा बांटते हैं। एक्स-रे मशीन चल नहीं रही, लेकिन कंपाउंडर कहता है – “हम आंखों से बता देंगे, हड्डी टूटी है कि सपना।” याद है सोनबरसी सीएचसी में फर्श पर प्रसूता ने बच्चे को जन्म दिया था। नतीजा? बलिया का नौजवान बैग उठाकर किसी दूसरे शहर में सड़कों पर 'मजदूर मंडी' में लाइन लगाता फिरता है। उधर, नोएडा में गगनचुंबी इमारतें, मॉल, और मेट्रो की चमक है। 


वहां लोग स्टारबक्स में कॉफी पीते हैं, और बलिया में लोग चाय की टपरी पर 'कटिंग' के लिए तरसते हैं। नोएडा में स्टार्टअप्स की बाढ़ है, और बलिया में बाढ़ सिर्फ बरसात में आती है, वो भी फसलों को डुबोने। नोएडा में लोग 'वर्क फ्रॉम होम' करते हैं, और बलिया में लोग 'होम छोड़कर वर्क' की तलाश में भटकते हैं। जब नोएडा ने IT हब बनने की ठानी, और बलिया को 'बिहार का रिश्तेदार' कहकर छोड़ दिया गया। नेता आते हैं, वादे करते हैं, पर बलिया में सड़कें अब भी 'चांद की सैर' करवाती हैं। 


विकास के नाम पर बलिया के हिस्से में आते है थोक भाव में छुटभैये नेता, जो बड़े नेताओं के पिछलग्गू भर हैं। तो क्या बलिया को नोएडा बनने की जरूरत है? शायद नहीं। बलिया की मिट्टी में वो बात है, जो नोएडा के कंक्रीट में नहीं। बस जरूरत है एक मौके की, जो बलिया को पलायन का ठप्पा हटाकर प्रगति का तमगा दे। तब तक, नोएडा वाले 'डिजिटल इंडिया' में उड़ें, और बलिया वाले 'सपनों के इंडिया' में जीएं। 



बलिया में शेर कभी आज़ादी की लड़ाई लड़ते थे, अब वहीं के युवक ‘डिलीवरी ब्वॉय’ की एप्लिकेशन डाउनलोड कर रहे हैं। लेकिन उम्मीद अब भी जिंदा है। हर बलियावी को भरोसा है कि अगली सरकार में ‘हमारे भी अच्छे दिन’ आएंगे। और तब तक?

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