एक ‘स्पेस’ की उड़ान का लैंडिंग पैटर्न

विजय शंकर पांडेय 

“बलिया के नरेही गाँव निवासी सौरभ सिंह ने नासा की अंतरराष्ट्रीय परीक्षा में दो लाख छात्रों को पछाड़कर पहला स्थान हासिल किया!”


दफ्तर पहुंचते ही खबर बिजली की तरह डेस्क पर गिरी थी और स्याही सूखने से पहले ही मेरे भीतर सवालों की आंधी चलने लगी। उन दिनों मैं वाराणसी में एक बड़े अखबार के पूर्वांचल पेज का प्रभारी था और पूर्वांचल की मिट्टी में उगते हीरो-हथियारों की स्याही से हम रोज अखबार रचते थे। बलिया ब्यूरो प्रभारी ने यह खबर भेजी और जैसे ही लाइन पढ़ी, मेरी भौंहें तिरछी हो गईं।



“अरे भई, ऐश्वर्या राय मिस वर्ल्ड बनी थी तो खबर सनसिटी (दक्षिण अफ्रीका) से आई थी, और सौरभ सिंह नासा में टॉप कर गया तो खबर वाशिंगटन की जगह सीधे नरेही गाँव से?”


ब्यूरो वाले बोले—"वहां से आई थी, हमने आपको फारवर्ड कर दिया।"


"वहां मतलब कहाँ? बलिया मुख्यालय भी नहीं, सीधा गाँव?"


मन में शंका की बेल उग आई थी। इतने बड़े कारनामे पर दिल्ली-लखनऊ तक सन्नाटा क्यों? चैनलों की स्क्रीन खाली क्यों? मैंने स्थानीय संवाददाता से सीधे बात करने की ठानी, लेकिन घंटे भर की मशक्कत के बाद भी नंबर नहीं लगा।


खबर में दावे भी हल्के फुल्के नहीं थे। बलिया शहर से 55 किलोमीटर दूर नरेही गाँव के निवासी सौरभ सिंह ने दुनिया भर के दो लाख छात्रों को पछाड़ कर नासा की प्रतिष्ठित अंतरराष्ट्रीय परीक्षा में अव्वल स्थान हासिल किया है।


इससे पहले केवल दो भारतीय इस परीक्षा में उतीर्ण हुए हैं। इनमें से एक हैं तत्कालीन भारतीय राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम और अंतरिक्षयात्री कल्पना चावला।


1960 की परीक्षा में राष्ट्रपति कलाम सातवें स्थान पर थे और 1988 में कल्पना चावला इक्कीसवें स्थान पर। 


अब मेरी दुविधा दोहरी थी—अगर यह खबर झूठ निकली और मैंने चला दी, तो सवाल मेरे न्यूज सेंस पर उठेगा। और अगर सही निकली और मैंने दबा दी, तो दूसरा अखबार हीरो बन जाएगा और मैं 'विलेन'।


एक बात दिमाग में आई क्यों न धृतराष्ट्र से प्रेरणा ली जाए। खबर इंटरनेशनल फ्लेवर की है। इसे सीधे पहले पेज के लिए प्रस्तावित कर दिया जाए। 


जाहिर है वहां धुरंधर धनुर्धर बैठते हैं। कोई रास्ता निकाल लेंगे। खबर सही निकली तो कोई बात नहीं। अगर गलत निकली, तो सवाल उनके विवेक पर भी उठेगा। 


कहा भी जाता है कि दुख बांटने से कम हो जाता है। 


मगर वहां भी हरफनमौला खिलाड़ी बैठे थे। खबर को देखना तक मंजूर नहीं था। तर्क था कि विज्ञापन बहुत है। स्पेस संकट है। 


अब कोई चारा न देख मैं अपना फैसला लिया—खबर को 'अंडरप्ले' करो।


बाएं पन्ने के ब्लैक एंड व्हाइट सेक्शन में सिंगल कॉलम। एक कोना पकड़ा, छाप दी गई—ताकि न मरे न जीए। न किसी को दिखे, न कोई कहे कि छापा नहीं।


सुबह तक चैन की नींद ली। कोई और अखबार इस खबर को नहीं उठा पाया। शांति थी। पर यह शांति ज्यादा दिन टिकने वाली नहीं थी।


हफ्ते भर बाद भूचाल आया।


शहर के दूसरे बड़े अखबार ने उसी खबर को पहले पन्ने पर तीन कॉलम में छाप दिया। साथ में लगा दी सौरभ की तस्वीर, स्कूल, गाँव और देश का नाम रौशन करने वाला अंदाज़। अफवाह उड़ी कि तीसरे बड़े अखबार ने अपने बलिया प्रभारी को फोर्स लीव पर भेज दिया। ‘पेनाल्टी किक’ लगी थी।


मैंने घड़ी देखी—साढ़े नौ बजे संपादक जी दफ्तर में होंगे। उनका मूड गर्म होगा। और हुआ भी वही। नोएडा से कॉल आई। पहले बलिया ब्यूरो प्रभारी से पूछताछ हुई। जवाब आया—"हमने तो भेजी थी खबर। पांडेय जी खबर लगाएं हैं, छोटी सी।"


सारे ‘शेर’ अब मेरे गले में घंटी बांधने लगे।


मैंने अपनी दुविधा, परिस्थिति और व्यावहारिक विवेक का तर्क पेश किया।


संपादक जी सूझ-बूझ वाले थे। मुस्कराए और बोले—


“पांडेय जी, आपकी सारी बातें अपनी जगह सही है, मगर उस रात मैं बनारस में होता, तो सौरभ अगले दिन का हीरो होता।”


सच में सौरभ अब अखबारों से निकलकर हर प्लेटफॉर्म पर छाने लगा था।


तीसरे अखबार का वही बलिया प्रभारी अब बुलेट ट्रेन बन चुका था। गाँव पहुँचा, सौरभ के चाचा-ताऊ, मामा-मामी, ट्यूटर, पड़ोसी और गाय भैंस तक का इंटरव्यू किया। दो पेज उस अखबार ने सौरभ सिंह के नाम कर दिए। अंग्रेजी संस्करण में अनुवाद हुआ। अखबार घर-घर में छपता नहीं, गरजता नजर आया।


अब तो मेरे अखबार में भी तूफान आ गया। एक साथी पत्रकार ने वर्ल्ड मीडिया में सौरभ की कवरेज निकाली। इंटरनेट पर तहलका मच गया—अमेरिका, इंग्लैंड सब जगे। पहला पेज, बड़े अक्षर, मोटी हेडलाइन।


“सौरभ, यू नो, टॉप्ड इन नासा।”


एक टीवी चैनल ने तो हद कर दी—सौरभ के पिता राम किश्वर सिंह को बनारस स्टूडियो बुला लिया। लाइव इंटरव्यू में वह बता रहे थे कि कैसे उनका बेटा लालटेन की रोशनी में पढ़ता था। सरसों के तेल की बूंद आंखों में डालकर नींद भगाता था।


मैंने अपने बेटे को ज़बरदस्ती वह शो दिखवाया। भले ही वह प्राइमरी में पढ़ता था, मगर मैंने सोचा ‘प्रेरणा’ नाम की कोई चीज़ होती है।


उत्तर प्रदेश विधानसभा में विधायकों ने तालियां बजाईं। आर्थिक मदद का ऐलान हुआ। बलिया के एसपी बोले—“सौरभ की पढ़ाई का पूरा खर्च हम उठाएंगे।”


अगले दिन पता चला—सौरभ अपनी प्रिंसिपल के साथ राष्ट्रपति डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम से मिलने दिल्ली गया है। 


राष्ट्रपति ने उसे मिलने का समय तो दिया, मगर कोई विशेष बात नहीं की। 


मेरे एक वरिष्ठ पत्रकारसाथी ने उलाहना दिया - बताइए पांडेय जी, आपने सौरभ की प्रतिभा पर भरोसा नहीं किया। मगर वह कहां से कहां पहुंच गया। 


मैंने जवाब दिया - हां, मगर राष्ट्रपति ने उससे कोई खास बात नहीं की। लगता है उसके टैलेंट को भांप वे भी इन्फीरियॉरिटी कॉम्प्लेक्स के शिकार हो गए हैं। आखिर वह बागी बलिया का शेर है।


अब तो मैं भी यकीन करने लगा—कुछ तो बड़ा किया है लड़के ने।


लेकिन यहां ट्विस्ट आना बाकी था।


राष्ट्रपति भवन की ओर से एक संक्षिप्त विज्ञप्ति आई—


“नासा की ओर से ऐसी कोई परीक्षा आयोजित नहीं की जाती है।”


जाहिर है हीरो से जीरो बनना ही था।


हमने तुरंत ‘लीड’ बदल दी।


हेडिंग बनी—“सौरभ बना हीरो से जीरो।”


खबर पहले एडिशन में लीड बन गई।


पर हेडिंग के नीचे एक विज्ञापन देखकर मेरी घिग्घी बंध गई।


वह हमारे संग बंटने वाली पत्रिका का विज्ञापन था, जिसकी कवर स्टोरी थी—“सौरभ की सफलता के राज़”।


अब तो माथा पकड़कर संपादक जी के पास दौड़ा।


पत्रिका बरेली से छपती थी और देशभर में जाती थी।


उसका वितरण रोकना हमारे हाथ में नहीं था।


समझौता यही हुआ कि लीड के ठीक बगल में दो पंक्तियों की सूचना छापी गई:


“उक्त खुलासे से पहले पत्रिका छप चुकी थी।”


बिलकुल वैसे ही जैसे फिल्मों के पहले ही लिखा होता है—"यह कहानी काल्पनिक है, किसी जीवित व्यक्ति से मेल संयोग मात्र है।"


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इस किस्से ने पत्रकारिता में एक मूल मंत्र फिर से याद दिलाया—


"खबर वह नहीं जो पहले आती है, खबर वह है जो बाद में सही साबित होती है।"


और एक सबक भी—


“हर हीरो के पीछे एक एडिट पेज होता है, और हर जीरो के पीछे एक डेस्क की देर।”


नरेही गाँव की लालटेन वाली रात में जो ‘रोशनी’ दिखी थी, वो या तो आसमानी थी… या फिर गाँव के पास लगा कोई LED बोर्ड।


सौरभ सिंह की ‘अंतरिक्ष उड़ान’ भले ही नासा की परीक्षा से ना जुड़ी हो, मगर इस किस्से ने ज़मीन से लेकर आसमान तक सबको हिला कर रख दिया।


और पत्रकारों के लिए ये किस्सा आज भी एक केस स्टडी है—


“खबर को नज़रअंदाज करने का भी एक रॉकेट साइंस होता है।”

अकेलापन – अब लाइफ का परमानेंट रूममेट

 विजय शंकर पांडेय 



खामोशी लाखों जिंदगियां ले रही है। लेकिन हमारा जवाब? "अरे, मैं तो इंट्रोवर्ट हूँ, ये मेरा स्टाइल है!" अकेलापन अब कोई बीमारी नहीं, "ट्रेंड" बन चुका है। पहले लोग 'सोलो ट्रिप' पर जाते थे, अब 'सोलो लाइफ' पर निकल पड़े हैं। 



रिश्तों में इतनी 'नेटवर्क प्राब्लम' है कि अब लोग emotions को भी एयरप्लेन मोड में रखकर जी रहे हैं। WHO कहता है कि हर छठा इंसान अकेला है। हमारा सवाल है — भाई बाकी पांच ने कौन-सा मुहब्बत की लॉटरी मार ली है? पहले लोग अकेलेपन से डरते थे, अब इंस्टाग्राम पर कैप्शन डालते हैं — "Alone but peaceful", और फोटो में Peace sign के साथ थोड़ा Sad filter लगा देते हैं। भीतर से टूटे हुए, बाहर से फोटोज में Cute! 


युवाओं की हालत सबसे खराब है। वो तो अब इंस्टा रील्स और व्हाट्सएप स्टेटस तक सिमट गए हैं! युवा तो इस अकेलेपन के ओलंपिक में गोल्ड मेडल जीत रहे हैं। सुबह स्क्रॉल, दोपहर स्क्रॉल, रात को भी स्क्रॉल—बस दोस्तों का नंबर स्क्रॉल नहीं होता।


दिन भर चैटिंग करते हैं, फिर भी कहते हैं, "कोई समझता नहीं मुझे...।" व्हाट्सएप पर 256 कॉन्टैक्ट्स, लेकिन रात को कॉल करने के लिए एक भी 'बाय डिफॉल्ट' इंसान नहीं। गूगल से पूछते हैं — "How to be happy alone?" गूगल भी जवाब देता है — "किसी थेरेपिस्ट से संपर्क करें।" 


अब दोस्त भी इतने व्यस्त हैं कि पहले मिलने के लिए टाइम पूछते थे, अब पूछते हैं — Zoom या Google Meet? एक जमाना था जब दोस्त चाय के बहाने मिलते थे, अब मेंटल ब्रेकडाउन के बाद कॉल पर “ब्रो, तुम ठीक तो हो ना?” कहकर फिर ऑफलाइन हो जाते हैं। 



और रिश्तेदार? उनसे बातचीत का मतलब है — "शादी कब करोगे?", "जॉब लगी?", "फ्लैट लिया या अब भी रेंट पर?" फिर भला इंसान अकेला न हो तो क्या करे? अकेलापन अब मानसिक नहीं, सामाजिक लाइफस्टाइल है। हर कोई दिखना चाहता है बिज़ी, खुश और सक्सेसफुल — भले ही अंदर से खुद से बात करने में भी डर लगता हो। 



जिंदगी अब इमोशंस से नहीं, EMI से चलती है। जहां लोग रिलेशनशिप में भी “स्पेस” चाहते हैं, वहां अकेलापन तो जैसे Buy 1 Get 1 Free ऑफर हो गया है। फिल्मों में हीरो-हीरोइन अकेले होते हैं, मिलते हैं, गाना गाते हैं, और कहानी खत्म। रियल लाइफ में हम अकेले होते हैं, डेटिंग ऐप खोलते हैं, "Hey" भेजते हैं, और रिप्लाई कभी नहीं आता। 


WHO चिंतित है, लेकिन बाजार खुश है। अकेलेपन के नाम पर मेडिटेशन ऐप, स्लीप म्यूजिक, इमोशनल थेरेपी, और 'सोल मेट फाइंडर वेबसाइट्स' की चांदी हो गई है। आखिर अकेलेपन से बड़ी कोई मार्केटिंग स्ट्रैटेजी थोड़ी है! तो अब अगर आप अकेले हैं, तो घबराइए मत — आप ट्रेंड में हैं। 


और अगर आप बहुत खुश हैं, बहुत सोशल हैं, तो पक्का कोई न कोई “अंदर से अकेलापन महसूस कर रहा हूं” पोस्ट जल्दी डालने वाले हैं। बोलिए, लाइफ में अकेलापन है... या कंटेंट का खजाना? बेशक चुनौतियां बढ़ी हैं, पर हमने भी तो अकेलेपन को 'लाइफस्टाइल' बना लिया! तो चलिए, अगली रील में मिलते हैं—अकेले, मगर स्वैग के साथ!

नींव में सिर्फ पत्थर नहीं, एक मां की मजबूरी भी है

 विजय शंकर पांडेय 






एक पुल की व्यथा, जिसकी नींव में सिर्फ पत्थर नहीं, एक मां की मजबूरी भी है। शाही पुल का शाही किस्सा – जब एक औरत ने अकबर की नौका रोक दी थी!



1564 का जौनपुर, गोमती नदी लहरें मार रही थी और बादशाह अकबर नौका विहार के मूड में थे। साथ में मुनीम खान खाना – जी हां, वही जो हर चीज में ‘खाना’ जोड़ देते थे, चाहे वो मस्जिद हो या मनसबदारी। नाव पर सवार अकबर सोच रहे थे कि आज थोड़ा सुकून मिलेगा, मगर इतिहास को शायद सुकून से चिढ़ है।



तभी एक औरत चीख-चीखकर नौका को रोके जा रही थी, जैसे कह रही हो – “बादशाह! ज़रा इधर भी देख लो, गोमती पार करना तुम्हारी शान की तरह मुश्किल हो गया है!”


नाव रुकी। अकबर उतरे, चेहरा गंभीर। औरत ने कहा – “साहब! दो बच्चे हैं, एक बीमार, दवा और रोटी ले आई हूं, पर अब घर नहीं जा सकती। नाव जा चुकी है।”

मुनीम खान को लगा ये सियासत से बाहर की बात है, मगर औरत वहीं नहीं रुकी – “आपके मुनीम मस्जिद के लिए चंदा इकट्ठा कर रहे हैं, पर पुल के लिए नहीं! खुदा को तो पैदल रास्ता नहीं चाहिए, हमें चाहिए!”


अकबर के चेहरे पर हल्की मुस्कान आई, बोले – “मस्जिद बाद में बनेगी, पहले पुल बनेगा!”


अब मुनीम खान की आंखें वैसे ही फैल गईं जैसे खजाने में कोई घोटाला पकड़ लिया गया हो। बोले – “हुजूर! यहां कुंड है, गहरा है, पुल बनाना मुश्किल है।” अकबर ने तलवार नहीं निकाली, बस एक नजर डाली – और काम हो गया।


अब शाही इंजीनियर बैठे – बोले नदी की दिशा बदलनी पड़ेगी। जैसे बादशाह का मन बदलता है, वैसे ही गोमती की धारा भी बदल दी गई। फिर शुरू हुआ ‘ऑपरेशन शाही पुल’। कुल 10 पिलर खड़े हुए, जो आज भी खड़े हैं। 1567 में जब पुल बनकर तैयार हुआ तो जौनपुर वालों ने सोचा, “अब जिंदगी आसान होगी।”



लेकिन तब आए ओमनी साहब, जिलाधीश। उन्होंने सोचा, “सड़क खाली क्यों दिख रही है? चलो, गुमटी बना देते हैं।” 28 गुमटियां बना दी गईं – जैसे पुल नहीं, हाट बाजार हो। लोग पुल पर टहलते कम, समोसे और कचौड़ी ज्यादा देखते। जैसे-जैसे वक्त बदला, भीड़ बढ़ी, जाम लगने लगा।


इतिहास गवाह है – एक महिला की आवाज ने पुल बनवा दिया, और आजकल के सांसद विधायकों से आप चिरौरी करते रहिए कोई सुनवाई नहीं होगी। 





ट्रंप राजनीति नहीं करते, रिएलिटी शो चलाते हैं

 विजय शंकर पांडेय 


सच पूछिए तो ट्रंप साहब राजनीति नहीं करते, वो रिएलिटी शो चलाते हैं। ट्वीट में स्क्रिप्ट, प्रेस कॉन्फ्रेंस में ट्विस्ट और युद्ध में क्लिफहैंगर! 





सुबह उठते हैं तो ईरान दुश्मन होता है, दोपहर तक बातचीत की मेज सजती है और शाम होते-होते "ग्रेट फ्रेंड" का तमगा दे दिया जाता है। और रात को फिर ट्वीट: उसने मुझे धोखा दिया, दुखद। ट्रंप का हर बयान ऐसा जैसे किसी स्टैंडअप कॉमेडियन का स्क्रिप्ट हो — बस फर्क इतना है कि ये जोक परदे पर नहीं, पेट्रोल के दाम में असर डालते हैं। मोदी जी इस मामले में थोड़े देसी संस्करण हैं। सुबह किसान सम्मान निधि, दोपहर तक टमाटर ₹100 किलो और शाम होते-होते भाषण में “हमने महंगाई पर नियंत्रण पाया है” का जादुई मंतर। दोनों नेता अपने देश के किसानों के लिए इतने चिंतित हैं कि किसान खुद भ्रम में हैं। या यूं कह लीजिए टेंशन में है। 


अब बात चीन की करें तो ट्रंप साहब चीन से व्यापार युद्ध छेड़ते हैं, फिर उसी चीन से डील भी कर लेते हैं। कहते हैं — “चाइना इज चीटर!” और अगले ही दिन: “शी जिनपिंग इज ग्रेट लीडर, माई फ्रेंड।” मोदी जी भी कम नहीं। गलवान के बाद चीन को "उचित जवाब" दिया गया, लेकिन मोबाइल एप बंद करके। सेना से ज्यादा तकलीफ शायद टिक-टॉक वालों को हुई। 


ट्रंप जहां युद्ध से प्यार और व्यापार से तकरार करते हैं, वहीं मोदी जी भाषण से इलाज और चुनाव से उद्धार करते हैं। और जब दोनों साथ आ जाते हैं — तो दुनिया की सबसे बड़ी जलेबी बनती है। ह्यूस्टन में “हाउडी मोदी” और अहमदाबाद में “नमस्ते ट्रंप”। दोनों हाथ हिलाते हैं, जनता हंसती है और पेट्रोल की कीमत चुपचाप बढ़ जाती है। सऊदी का मामला तो दोनों नेताओं के लिए “सब चलता है” क्लब में आता है। 


तेल चाहिए, हथियार चाहिए, आतंक की परवाह किसे? ट्रंप साहब कहते हैं — “हमने डील की, बड़ा फायदेमंद रहा।” मोदी जी कहते हैं — “हमने रणनीतिक साझेदारी की, ऐतिहासिक क्षण है।” और किसान? वो खेत में सोच रहा है, “शायद अगली बार मैं भी अंतरराष्ट्रीय मुद्दा बन जाऊं।” ट्रंप और मोदी, दोनों ही अपने-अपने तरीके से पब्लिक रिलेशन के धुरंधर हैं। फर्क सिर्फ इतना है कि एक ट्वीट से धमकाता है, दूसरा मन की बात से फुसलाता है। 


आख़िर में, ये दोनों महान नेता हमें एक बात ज़रूर सिखा गए — राजनीति अब न नीति पर टिकी है, न राज पर, बस इवेंट मैनेजमेंट पर टिकी है। 


जय लोकतंत्र! जनता जनार्दन जलेबी की तरह गोल गोल घुमने को अभिशप्त है। बहरहाल पीटीआई की माने तो यदि मौजूदा मतभेद सुलझा लिए जाते हैं, तो भारत और अमेरिका के बीच अंतरिम व्यापार समझौते की घोषणा 9 जुलाई से पहले हो सकती है।