कौन बदन से आगे देखे औरत को....

 विजय शंकर पांडेय 




जब रक्षक ही भक्षक बन जाएं, तो महिलाएं इंसाफ नहीं, इंसान होने की भीख मांगती हैं। ओडिशा की छात्रा की आत्मदाह की घटना कोई पहला मामला नहीं है, लेकिन अफसोस ये है कि सिस्टम अब भी नींद में है—और उसका तकिया शायद "इंटरनल कंप्लेंट कमेटी" की रिपोर्ट है, जो या तो बनी नहीं होती या बनी तो उसे चाय-पानी से ज्यादा गंभीरता से नहीं लिया जाता। 




अब देखिए, ये देश है जहां बेटी पढ़ाओ का नारा इतना ज़ोर से लगाया गया कि खुद संविधान के कान बजने लगे, लेकिन जब वो पढ़ने निकलती है, तो जमाने से जूझना पड़ता हैं, सड़क से लेकर शिक्षण संस्थान तक उनका गिद्धों से वास्ता पड़ता है। अगर लड़की इसका विरोध करे, तो सिस्टम बड़े प्यार से कहता है, "बेटा, तुम्हें गलतफहमी हुई है, हमारे फलां सर तो संस्कारों की मिसाल हैं!"


और जब अंत में लड़की सब दरवाज़े खटखटा के थक जाती है और खुद को आग लगा लेती है, तो शिक्षा विभाग आंखें मलते हुए उठता है, "ओह, हमें लगा था ये कोई सामान्य प्रशासनिक मामला है!" 


फिर बड़े भारी मन से कहा जाता है—"24 घंटे में कमेटी बना दो"—जैसे कोई इंस्टेंट मैगी बना रहे हों। लेकिन सवाल ये है कि पहले जिन कमेटियों को दशकों से बनना था, वे क्या देश सेवा पर निकली थीं? 


बंगाल, कर्नाटक हो या दिल्ली—पूरा देश जैसे किसी सीरियल 'क्राइम स्पॉट इंडिया' में तब्दील हो गया है, और कैमरा हर बार महिला के चेहरे पर जूम करके कहता है—"गलती तुम्हारी है, तुम्हें विरोध नहीं करना चाहिए था, तुम्हें शिकायत नहीं करनी चाहिए थी, तुम्हें बाहर नहीं निकलना चाहिए था..." मतलब महिला हो तो सिस्टम को सुविधाजनक चुप्पी का मूड आ जाता है।


2012 की निर्भया कांड के बाद हम सबने मोमबत्तियां जलाई थीं, पर शायद इंसाफ के बजाय मोम ही पिघला। कानून बने, लेकिन उनमें धार नहीं, और अगर हो भी, तो उन्हें लागू करने वाला अफसर अक्सर आरोपी के साथ चाय पीता मिल जाता है। और जब NCRB के आंकड़े बताते हैं कि साल-दर-साल अपराध बढ़ रहे हैं, तो सरकार कहती है—"ये तो अच्छा संकेत है, कम से कम रिपोर्ट तो हो रहे हैं!" वाह सरकार, ताली। 



असल में इस देश में महिला सुरक्षा की स्थिति ऐसी है जैसे स्कूल की छुट्टी के दिन स्कूल की घंटी बज जाए—शोर तो बहुत होता है, लेकिन कोई पढ़ाई नहीं होती। और जब अपराधी टीचर, डॉक्टर, पुलिस या नेता निकलते हैं, तो लगता है कि महिलाओं को तो जैसे लोकतंत्र के 'डेमो' वर्जन में रखा गया है—जिसमें अधिकार थोड़े, और रिजेक्शन फुल HD में।


समाधान? बात शुरू हो, बहस हो, जवाबदेही हो। लेकिन सबसे पहले—ये मानना ज़रूरी है कि महिलाओं की सुरक्षा कोई विषय नहीं, ये लोकतंत्र की बुनियाद है। वरना अगली पीढ़ी यही सीखेगी—बेटी पढ़ाओ, लेकिन बस लाइब्रेरी तक; और वहां भी सीसीटीवी ऑन रखना मत भूलना!




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