विजय शंकर पांडेय
आजकल नौकरी करना ऐसा है जैसे किसी सर्कस में जाकर जानबूझकर शेर के पिंजरे में घुस जाना। बाहर से देखो तो वाह, क्या तमाशा! सूट-बूट, लैपटॉप, कॉफी मग, और वो LinkedIn प्रोफाइल, जहां हर कोई "Game Changer" और "Thought Leader" है। लेकिन अंदर की कहानी? वो तो बस वही समझ सकता है, जो सुबह 9 बजे से रात 9 बजे तक "डेडलाइन" नामक राक्षस से कुश्ती लड़ रहा हो।
शिवशंकर मित्रा जी की कहानी सुनकर तो दिल बैठ गया। पुणे के बैंक में वरिष्ठ अधिकारी, जिन्होंने वर्क प्रेशर के सामने हार मान ली। सुसाइड नोट में लिखा, "बॉस, ये KPI और टारगेट मेरी जान ले गए।" अब सोचिए, अगर बैंक में बैठा अधिकारी ऐसा हाल कर ले, तो बाकी हम जैसे आम लोग, जो Zoom मीटिंग में "You’re on mute" सुनकर ही पसीना-पसीना हो जाते हैं, उनका क्या होगा?
वर्कप्लेस स्ट्रेस अब कोई बीमारी नहीं, ये तो लाइफस्टाइल बन गया है। पहले लोग कहते थे, "काम का बोझ तन को तोड़ता है।" अब तो सीधे आत्मा को कुचल देता है। ऑफिस में बॉस का एक मेल आता है, "Urgent: EOD तक ये काम हो जाना चाहिए।" और वो EOD, यानी End of Day, रात 2 बजे तक खिंच जाता है।
फिर सुबह 8 बजे फिर वही मेल, "Update kya hai?" भाई, अपडेट ये है कि मेरी नींद और मेरी जिंदगी, दोनों का स्टेटस अब "Pending" है। और ये कॉरपोरेट कल्चर! वाह, क्या बात है! "Work hard, play hard" का नारा सुनकर लगता है, ऑफिस में टेबल टेनिस खेलने की टेबल डाल दी जाएगी। लेकिन नहीं, "play hard" का मतलब है वीकेंड पर भी लैपटॉप खोलकर PPT बनाना।
"Team building" के नाम पर पिज्जा पार्टी तो होती है, लेकिन उसमें भी बॉस टेबल पर खड़ा होकर बोलता है, "Guys, Q4 के टारगेट्स डिस्कस कर लेते हैं।" फिर आता है "वर्क-लाइफ बैलेंस" का जुमला। अरे, ये बैलेंस तो उसी तरह मिथक है जैसे सास-बहू में प्यार! सुबह ऑफिस, रात को ओवरटाइम, और बीच में वो 15 मिनट का ब्रेक, जिसमें आप चाय पीते हुए भी क्लाइंट का कॉल अटेंड करते हैं।
बैलेंस? हां, बस इतना कि दिमाग और दिल, दोनों एक साथ टूटते हैं। तो दोस्तों, अगली बार जब कोई कहे, "नौकरी करो, जिंदगी बनाओ," तो हंसकर जवाब देना, "भाई, जिंदगी तो बन रही है, बस आत्मा की डेडलाइन नजदीक आ रही है।" और हां, अगर बॉस का मेल आए, तो पहले एक गहरी सांस लो, क्योंकि ऑक्सीजन फ्री है, नौकरी नहीं।
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