विजय शंकर पांडेय
बांग्ला सुने नहीं कि बांग्लादेशी!
उर्दू बोले नहीं कि पाकिस्तानी!
तमिल, तेलुगु, कन्नड़ का क्या करें?
उन्हें भी वीजा दिलवा दें?
दिमाग तो बंद है ही
कान तो खोल लो।
भाषा गुलामी नहीं,
अभिव्यक्ति है।
हर ज़ुबान में दर्द है,
गीत है, गाली है —
और हाँ, प्यार भी है।
भाषा पे लंठई?
तुम होते कौन हो,
हमारी भाषा तय करनेवाले?
संस्कृत ही हमारी है, ठीक है।
तो फिर हिंदी की भी वतनपरस्ती खतरे में है!
मगर विडंबना तो देखिए
यह भी हिंदी में ही बताना पड़ रहा है।
जो हमारी सुनेगा, वो ही रहेगा –
ये कौन-सा संविधान पढ़ा है आपने?
वो, जिसमें ध्वनि से पहले व्यक्ति म्यूट होता है?
बांग्ला ने रवींद्रनाथ दिया।
उर्दू ने ग़ालिब।
संस्कृत ने कालीदास।
सब मिलाकर हम बने।
तो फैसला करो —
देश बनाना है, या दीवार?
भारत है – बहुभाषी लोकतंत्र,
न कि एकभाषी प्रोपेगैंडा केंद्र।
वरना अगली बार कोई कहेगा —
"जो मेरी तरह हँसेगा, बस वही रहेगा।"
फिर देख लेना —
मुस्कान भी असहिष्णु हो जाएगी।
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