विजय शंकर पांडेय
सब सोचें वैसा,
जैसा कहा जाए।
हर सिर झुका रहे,
हर होंठ दुआ जाए।
अकल हो मगर
इस्तेमाल न हो।
सवाल हो मगर
कमाल न हो।
जो पूछे "क्यों?"
वो गुनहगार।
जो बोले "नहीं!"
वो बीमार।
ताली मिले
सिर्फ़ हामी को।
फांसी मिले
जो थामी हो बाग़ी को।
सच अब
तालीम से नहीं आता।
वो स्क्रीन पे
स्लोगन बन कर नाचता।
गूंगे अच्छे,
बहरे प्यारे।
आँख मूँद लो,
तो हैं सारे सितारे।
ये भीड़ है
या बनाई गई रेज़ीमेंट?
सोचता हूँ —
ये साजिश है या मासूम ट्रीटमेंट?
पर सवाल फिर उठता है —
जब सब बेअक़्ल हो जाएँ,
तो अक़्लमंद कौन बताए?
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