विजय शंकर पांडेय
शास्त्र बचे रह गए
सब डूब गया।
गगन, धरती, मनुष्यता।
बचे तो बस शास्त्र।
पानी में भीगते, धूप में सूखते।
रामायण की चौपाइयाँ हवा में तैर रहीं थीं।
गीता का एक पन्ना किसी चट्टान से चिपका था।
कुरान के अक्षर, कीचड़ में सजे थे।
किसी ने कहा—
"देखो!
शास्त्र बचे हैं,
ये तो दैवीय संकेत है!"
मैं हँस पड़ा।
फिर रो पड़ा।
शास्त्र बचे रहे,
पर विवेक डूब गया।
धर्म बचे रहा,
पर मानव मर गया।
जिन्होंने पढ़े थे शास्त्र,
उन्होंने ही बाँट दिया था ईश्वर।
ईश्वर नहीं बंटा—
इंसान कट गया।
अब शास्त्र चुप हैं।
न उनकी कोई सभा है,
न कोई सवाल।
वे गवाही देंगे—
कि हमने सब कुछ पढ़ा था।
पर समझा नहीं।
और यह प्रलय—
किसी जल प्रलय से नहीं,
हमारी मूर्खता से आया था।
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