प्रकृति के आगे हमारी सारी उपलब्धियां अब भी बेमानी हैं. भारत गांवों का देश है. हमने जिन्हें शहरों का तमगा जबरिया थमा दिया, उनमें ज्यादातर में अब भी गांवों की तासीर काफी हद तक जस की तस है.
सोशल साइट पर पिताओं को अपने अपने अंदाज में याद करने की होड़ मची है. इसी में एक तबका यह बताना भी नहीं भूलता कि जिनके माता-पिता वृद्धाश्रम में हैं, वे भी बडी शिद्दत से उन्हें याद कर रहे हैं. यह एक तरह का तंज भी है. हालांकि जो वृद्धाश्रम में हैं, उनके लिए तो एक हद तक राहत की बात है. कम से कम उन्हें पूछने की औपचारिकता भर ही करने वाला कोई तो है.
हमारे देश में बुजुर्गों की एक अच्छी खासी आबादी ऐसी भी है जो कहने के लिए तो अपने घर पर है, मगर पूछने वाला कोई अपना नहीं है. कोरोना महामारी से पहले कम से कम इतनी खैरियत थी कि भाई, पट्टीदार, पड़ोसी, दोस्त-मित्र, दूर के रिश्तेदार वगैरह वगैरह सुध ले लिया करते थे. मगर कोरोना के आतंक के बीच हालात यह है कि गश खाकर लबे सडक गिर पड़े तो हाथ लगाने में लोगों को सोचना पड़ रहा है.
अमूमन मां बाप अपनी उम्र खपा देते हैं बच्चों को सपने पूरे करने में. बच्चे जब अपने पांव पर खड़े हो जाते हैं तो मारे खुशी फूले नहीं समाते. न जाने कितनी मन्नतें मांगी थी. सो पूजा पाठ से लेकर पार्टी तक कर उसे सेलिब्रेट किया जाता है. बच्चे कॅरियर बनाने निकल पड़ते हैं किसी दूर देश. जिनके बच्चे विदेश पहुंच जाते हैं वे तो गर्व से सोशल मीडिया में वहां की ताजी तस्वीरें चिपका बखानते नहीं अघाते. होनी भी चाहिए खुशी. मगर इस खुशी की असली कीमत का अहसास बहुत विलम्ब से होता है.
मेरे एक परिचित जिला मुख्यालय पर रहते हैं. पिछले दिनों फोन पर बता रहे थे कि उनके कई बुजुर्ग रिश्तेदार गंभीर रूप से अस्वस्थ हैं. इनमें से एक के पांच बेटे हैं. मगर कोई मुंबई में है, तो कोई दिल्ली में. बारी बारी से उनके बेटे उनकी देख भाल करने की गुहार वहीं से फोन पर लगा रहे हैं. लॉकडाउन की मजबूरी बता रहे हैं. जिला मुख्यालय से लगभग 40-45 किलोमीटर दूर उनका गांव है. कोरोना संकट और लॉकडाउन के चलते वे अपना भी घर नहीं छोड़ सकते. और नितांत पिछड़े जिले में बार बार इतनी दूरी तय करना भी भारी पड़ रहा है. फिर भी कोई चारा नहीं है. दूसरी बात वे बुजुर्ग रिश्तेदार से अपनी सारी पीड़ा बयान भी नहीं कर सकते. दिक्कत यह भी है कि इस तरह के मामले और भी कई रिश्तेदारों के साथ है. फिर कहां कहां जाया जाए? और कैसे सभी को मैनेज किया जाए? संकट की इस घड़ी में डॉक्टर भी सहज सुलभ नहीं है. साथ ही अपने को भी सुरक्षित बचाना है.
गौर कीजिए तो अब गांवों में वही टिका है जो साधन सम्पन्न है. मगर इनकी तादाद बहुत कम है. बाकी में वे मजबूर बचे हैं, जो टाउन या शहर में पान की गुमटी तक नहीं लगा पा रहे हैं. कोई और चारा न देख वहीं कुंडली मारे बैठे हैं. सहूलियत के नाम पर गांवों में है क्या? विशेष तौर पर स्वास्थ्य के मामले में. ज्यादातर पीएचसी, सीएचसी और जिला अस्पताल रेफर सेंटर भर हैं. ऐसे में परेशानी और बढ़ जाती है. विशेष तौर पर यूपी-बिहार जैसे पिछड़े राज्यों में यह समस्या विकट है. क्योंकि यहां के ज्यादातर लोग अन्य प्रदेशों में रोजी रोटी कमाने जाते हैं. क्योंकि इन राज्यों में उद्योग धंधे के नाम पर सन्नाटा पसरा हुआ है. विकल्प का संकट है.
गौर किया जाए तो इस महामारी ने न्यूक्लियर फैमिली के हिमायतियों को ज्वाइंट फैमिली का महत्व बहुत सलीके से समझा दिया.
#Man_proposes_God_disposes #fathersday
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
टिप्पणी: केवल इस ब्लॉग का सदस्य टिप्पणी भेज सकता है.