युद्ध तब होते हैं, जब भाषा हार जाती है।
जब तर्क का गला घोंट दिया जाता है।
जब बोलने वाले गूंगे बना दिए जाते हैं,
और सुनने वाले सिर्फ तालियां बजाते हैं।
शब्दों की जगह नारे ले लेते हैं।
संवाद की जगह संग्राम।
कविता की जगह तोपें,
और किताबों की जगह गोलियां बोलने लगती हैं।
नेता मंच पर चिल्लाते हैं—
"शांति चाहिए तो युद्ध करो!"
और जनता समझ लेती है,
कि शांति अब बिना लाशों के नहीं आती।
संसदें चुप रहती हैं,
कब्रिस्तान मुखर हो जाते हैं।
भाषा फिर भी कोशिश करती है—
समझाने की,
रोकने की,
लेकिन उससे पहले ही उसे “देशद्रोही” करार दिया जाता है।
और तब...
बोलते हैं सिर्फ बम,
और सुनती हैं सिर्फ लाशें।
प्रश्नचिह्न पत्रिका जुलाई 2025 सोलहवें अंक से साभार
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