देश बदल रहा है।
जीडीपी बढ़ रही है,
रिश्तों की ईएमआई भी।
एआई आ गया है,
मगर भावनाएं अब भी निबंध वाली हैं।
लड़के पढ़ते हैं...
एमबीए, बीटेक, आईएएस —
ताकि दहेज वाली कटोरी में रिश्ता परोसा जाए।
कुंडली नहीं मिल रही?
कोई बात नहीं, पैकेज तो मिल रहा है!
लड़कियां पढ़ती हैं...
एमए, पीएचडी, कोडिंग, यूपीएससी
— ताकि “बेटी की उम्र निकल रही है” को म्यूट कर सकें।
उनका गोल्ड मेडल शादी के मंडप में तिलक से हार जाता है।
लड़कों से पूछा जाता है
— कितने में कमाते हो?
लड़कियों से
— कब तक बचती रहोगी?
सिलेबस वही है —
लड़के योग्य बनें,
लड़कियां योग्यताएं छुपाएं।
लड़कों को "ब्याहने" भेजा जाता है,
लड़कियों को "समझौते" की ट्रेनिंग दी जाती है।
देश बदल रहा है,
पर रिश्तों का कोर्स अब भी पुरानी पाठशाला से चलता है।
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