बासु चटर्जी का मिडिल क्लास सिनेमा

 विजय शंकर पांडेय 

कल्पना कीजिए बासु चटर्जी आज होते और कोरोना लॉकडाउन पर फिल्म बनाते – "रूम में बंद प्रेम कथा"।


हीरो, LIC में क्लर्क, हीरोइन, घर की छत से पड़ोसी को ताकती। रोज़ाना 6 बजे दोनों बालकनी में मिलते – दूर से मुस्कुराते, हाथ हिलाते, और मास्क के नीचे गुनगुनाते: "ये शाम मस्तानी..."



माँ किचन में आलू उबालते हुए पूछती, "अरे वो लड़का फिर से बालकनी में है?"


हीरो धीरे से जवाब देता, "माँ, ये सोशल डिस्टेंस वाला इश्क़ है!"


सारा रोमांस थर्मामीटर से शुरू होता और सेनिटाइज़र पर खत्म। क्लाइमेक्स में दोनों की RT-PCR रिपोर्ट नेगेटिव आती है, और हीरो कहता, "अब तो शादी हो ही जाए!"


बासु दा होते, तो पिज़्ज़ा बॉय भी फ़िल्म में फिलॉसफी बघारता: "सर, असली स्वाद तो ज़िंदगी का है!"


वाह बासु दा, आपका मिडिल क्लास रोमांस अमर रहेगा – मास्क के पीछे भी मुस्कुराहट छोड़ गया!


मिडिल क्लास के गुदगुदाते रोमांस को उनसे बेहतर शायद ही कोई पर्दे पर उतार पाएगा उनकी फिल्में जैसे 'रजनीगंधा', 'चितचोर', और 'छोटी सी बात' ने मध्यमवर्गीय जीवन और रोमांस को सादगी और संवेदनशीलता के साथ पर्दे पर उतारा, जो आज भी दर्शकों के दिलों को छूता है। एक कार्टूनिस्ट के रूप में उनकी शुरुआत और बाद में सिनेमा में उनकी अनूठी कहानियों ने हिंदी फिल्म जगत को एक नई रंगत दी। उनकी कमी सदा खलेगी।

बॉलीवुड के इलस्ट्रेटर/कॉर्टूनिस्ट बासु चटर्जी को विनम्र श्रद्धांजलि🙏



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