रेलवे देश भर में 8 से 22 जून तक एक विशेष अभियान चलाने जा रहा है. इस अभियान के तहत ट्रेन में अधिक सामान लेकर सफर करने वाले मुसाफिर होंगे निशाने पर. कहां तक कामयाब होगा यह अभियान? यह तो वक्त बताएगा, मगर इसमें कोई शक नहीं कुछ लोग इतना अधिक सामान लेकर सफर करने के आदी होते हैं कि साथी पैसेंजरों की यात्राएं अविस्मरणीय हो जाती है.
घटना संभवतः 2001 की है. छोटे भाई Sanjay Shiwam की शादी थी. उन दिनों मैं जालंधर में अमर उजाला का मुलाजिम था. ब्रॉड गेज में परिवर्तन के बाद पहली बार सीधे बलिया ट्रेन से पहुंचने का सपना पूरा होने वाला था. तब तक हम लोग बंगाल से लौटने पर अप में बक्सर उतरा करते थे या फिर डाउन में बनारस. इसलिए दो महीने पहले ही दिल्ली निवासी अपने साथी पत्रकार Kshitij Mishra जी से आग्रह किया कि वे स्वतंत्रता सेनानी एक्सप्रेस से रिजर्वेशन करवा दें. मिश्रा जी दिल्ली से लौटते वक्त मेरा आरक्षण भी करवा कर जालंधर स्थित अमर उजाला कार्यालय पहुंचे. आरएसी 1 / 2 / 3. उम्मीद ही नहीं, लगभग भरोसा था कि बर्थ कन्फर्म तो हो ही जाएंगे.
निर्धारित तिथि पर मैं पत्नी व बेटे के साथ दिल्ली के लिए रवाना भी हो गया. वहां मेरी बहन इंतजार कर रही थी. उसका भी साथ ही आरक्षण था. हम निर्धारित समय पर स्वतंत्रता सेनानी एक्सप्रेस में सवार तो हो गए, मगर पता चला कि बर्थ कन्फर्म नहीं है. खैर आरएसी के चलते तीन की जगह कुल डेढ़ बर्थ हाथ लगे. मगर स्लीपर कोच में दाखिल होने में ही पसीने छूट गए. लगभग पूरा कोच ठसाठस भरा हुआ था. ज्यादातर लोग तो बर्थ पर ही अपना सामान भी लेकर बैठे मिले. कारण अधिकतर लोअर बर्थ के नीचे सामान पहले से ठूंस दिए गए थे. मुझे भी अपने सामान बर्थ पर टिकाने को मजबूर होना पड़ा. नीचे किसी ने पहले से कब्जा कर रखा था. हम लोगों के साथ पांच साल के कम उम्र के दो बच्चे भी थे. मेरा बेटा और मेरा भांजा. पत्नी, बहन और भांजे के हवाले एक बर्थ किया. बाकी आधे पर सामान और बेटे के साथ मैं जमा रहा.
कुछ खाने या चाय पीने का तो सवाल ही नहीं पैदा होता. डर के मारे पानी भी एकाध घूंट ही पी रहा था, ताकि यूरिनल जाने की नौबत न आए. क्योंकि वहां तक पहुंचना जंग जीतने के बराबर नजर आ रहा था. पता नहीं कौन उसमें खटिया/फोल्डिंग भी लाद रखा था. कुछ साथी यात्रियों को दया आई तो उन्होंने कहा कि बच्चे को उनकी बर्थ पर लिटा दें. मगर बेटा मेरी गोद से हिलने को कत्तई तैयार नहीं था. पूरे स्लीपर कोच इत्मीनान से सोता हुआ कोई नहीं दिख रहा था. कहीं सामान ज्यादा तो कहीं पैसेंजर. इसलिए मेरे भी मन में संतोष था और कोई चारा भी नहीं था. क्योंकि अगले ही दिन भाई का तिलक भी आना था. मजेदार बात यह थी कि इलाहाबाद तक मुझे उसे ट्रेन से उतरता हुआ कोई पैसेंजर नहीं दिखा. उल्टे लोग चढ़ ही रहे थे.
इलाहाबाद में भी एक साहब कोर्ट-टाई लगाए चढ़े. हाथ में ब्रीफकेस, और साथ में विदा करने पहुंचे भौकाल टाइट करने के लिए दो शागिर्द. शागिर्दों ने हड़काया तो सामने वाली बर्थ के सवारी थोड़ा खिसक गए. साहब बिना कुछ बोले इत्मीनान से बैठ गए. ट्रेन के चलने से पहले उनेक शागिर्द उतर गए. लगभग पंद्रह-बीस मिनट बाद बर्थ वाले यात्री ने हिम्मत जुटाई और साहब से पूछा- ये मेरा रिजर्वेशन है तो आप इस पर बैठ कैसे गए? हौसला आफजाई के लिए आसपास के अन्य यात्रियों ने भी हुंकारी भरी. साहब पहले सफाई देते रहे कि भाई टीटी को आने दो कोई व्यवस्था हो जाने पर उठ जाऊंगा. मगर बात बढ़ती देख उनका धैर्य जवाब दे गया. इसके बाद उन्होंने उग्र रूप धारण किया. कहा - बलिया, छपरा, मुजफ्फरपुर वाले हो न? कब से रिजर्वेशन करवा कर चलने लगे? बेटिकट चलने के लिए तो तुम सब बदनाम हो? जानते नहीं हो कौन हूं मैं? ..... मजिस्ट्रेट हूं. अभी पुलिस बुलवाकर एक-एक की औकात बता दूंगा. शरीफ आदमी की तरह समझा रहा हूं. चुपचाप बैठो.
मैं साइड लोअर बर्थ पर मूक दर्शक बना सब कुछ देख रहा था. अचानक कोच में सन्नाटा पसर गया. साहब भी इत्मीनान से बैठ गए. कुछ देर बाद साहब को पता नहीं क्या सूझी? उन्होंने मुझसे बातचीत की पहल की. कहां तक जाना है भाई साहब आपको?
जी बलिया तक... और आपको?
जी, मुजफ्फरपुर तक.
बातचीत के दौरान मेरी नजर उनके ब्रीफकेस पर चिपकाए गए विजिटिंग कार्ड पर पड़ी. साहब के बारे में मैं तब तक काफी कुछ जान चुका था. ट्रेन चल रही थी. बोरियत टालने के लिए बतियाना मेरी भी जरूरत थी. पता चल चुका था कि वे फैजाबाद के रहने वाले हैं. मैंने उन्हें बताया कि उनके जिले के कवि शलभ श्रीराम सिंह जी मेरे परिचित हैं. डेढ़ दो साल पहले कलकत्ता में उनसे मुलाकात हुई थी. साथ राम प्रकाश त्रिपाठी भी मेरे साथी पत्रकार है, फिलहाल पंजाब में नियुक्त हैं. संयोगवश दोनों उनके परिचित निकले. फिर अन्य बातें होने लगीं. हम दोनों एक दूसरे से काफी घुल मिल चुके थे. ट्रेन बनारस क्रॉस कर चुकी थी. हठात मैंने उनसे पूछा, यदि ट्रेन में सफर करते वक्त बंगाल में आपको झाल मूड़ी बेचने वाला मिल जाए तो क्या वह बंगाल का प्रतिनिधित्व करेगा या फिर रवींद्र नाथ टैगोर?
वे आश्चर्य चकित हो मुझसे मुखातिब हुए फिर बोले - बेशक रवींद्र नाथ टैगोर. मगर आप ऐसे प्रश्न क्यों पूछ रहे हैं?
इसलिए कि आपने हजारी प्रसाद द्विवेदी, भगवत शरण उपाध्याय, राजेंद्र प्रसाद, भिखारी ठाकुर, जयप्रकाश नारायण, चंद्रशेखर आदि आदि के जिले के लोगों पर बेवजह थोड़ी देर पहले बेटिकट यात्रा करने का तोहमत जड़ा. इनमें से ज्यादातर विधिवत रिजर्वेशन करवाकर यात्रा कर रहे हैं, भले बर्थ पर सामान लादे हुए हैं.
वे ठहाका लगाकर हंस पड़े. बोले - मंशा ऐसी नहीं थी. मगर रायता नहीं फैलाता तो चैन से बैठ भी नहीं पाता. क्या करूं?
ट्रेन चितबड़ागांव क्रॉस कर चुकी थी. उन्होंने पूछा - आपको तो बलिया उतरना है?
जी हां, मगर इतनी भीड़ में बच्चों और सामान को लेकर मैं गेट तक पहुंचुंगा कैसे? मेरी सबसे बड़ी चिंता तो यही है. दो ही मिनट का स्टापेज भी है.
उन्होंने कहा - चलिए मैं आपकी मदद करता हूं.
इसी दौरान आसपास के बैठे पांच-छह लोग लगभग एक साथ उठ खड़े हुए. अरे साहब, आप बैठिए. हम इनकी मदद करेंगे. आपने तो हमारी बोलती ही बंद कर दी थी. इन्होंने नाक बचा ली. आप दोनों की बातें हमलोग सुन रहे थे. अब तो यह ट्रेन इन्हें उतार कर ही आगे बढ़ेगी..... भले चेन.....
पलक झपकते वे सब गेट तक फैल गए और हाथों हाथ सामान और दोनों बच्चों को गेट तक पहुंचा दिया और हम सब बलिया स्टेशन पर उतर भी गए......... मगर इस यात्रा की स्मृतियां अब भी सफर कर रही हैं. फिर कभी स्वतंत्रता सेनानी से सफर करने का हिम्मत नहीं जुटा पाया.
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