हमें देश चाहिए था, इन्होंने बाजार बना दिया


विजय शंकर पांडेय 


स्वागत है हमारे प्यारे देश के ग्रैंड बाजार में, जहां हर गली-नुक्कड़ पर राजनीति का मसालेदार धंधा चलता है। यहां नेताजी, जादूगर हैं, जो वादों की चाशनी में डूबे लच्छेदार भाषणों से जनता को ललचाते हैं। देश उनके लिए कोई मातृभूमि नहीं, बल्कि एक विशाल सुपरमार्केट है, जहां हर वोट एक कूपन और हर कुर्सी एक जैकपॉट! बाजार का सबसे चमकदार स्टॉल है, नेताजी का "वादा-ए-खास"। यहां माल फ्री है, बस वोट का पेमेंट चाहिए। "हर हाथ में स्मार्टफोन, हर घर में हेलिकॉप्टर!"—नेताजी चिल्लाते हैं। जनता तालियां बजाती है, भूलकर कि पिछले चुनाव में मिला "फ्री वाई-फाई" का वादा आज भी डाउनलोडिंग पर अटका है। लेकिन कौन परवाह करता है? बाजार का नियम है—नया माल दिखाओ, पुराना भूल जाओ।नेताजी की दुकान में हर सीजन में नया प्रोडक्ट लॉन्च होता है। कभी "मेक इन देश" तो कभी "डिजिटल देश"। प्रोडक्ट का नाम जितना भारी, कीमत उतनी हल्की। 



बस, एक वोट और पांच साल का भरोसा। डिलीवरी? अरे, वो तो अगले टर्म में होगी, अगर जनता ने फिर से ऑर्डर किया तो! नेताजी का मार्केटिंग गेम इतना जबरदस्त है कि बिना कुछ किए ही उनकी ब्रांड वैल्यू बढ़ती जाती है। सोशल मीडिया पर हैशटैग, टीवी पर डिबेट, और रैलियों में डीजे—बाजार का माहौल हमेशा गर्म! लेकिन बाजार में सिर्फ नेताजी ही नहीं, उनके "पार्टनर" भी हैं। बड़े-बड़े बिजनेसमैन, जो नेताजी के स्टॉल पर इनवेस्ट करते हैं। बदले में? थोड़ा सा टेंडर, थोड़ा सा कॉन्ट्रैक्ट, और ढेर सारा प्रॉफिट। जनता? वो तो कंज्यूमर है, जिसे बस नए-नए ऑफर चाहिए। सड़कें टूटी हैं, स्कूल खस्ताहाल हैं, अस्पतालों में दवा नहीं—कोई बात नहीं! नेताजी एक नया स्लोगन लॉन्च करेंगे, और जनता फिर से लाइन में लग जाएगी। बाजार का सबसे मजेदार हिस्सा है "चुनाव मेला"। हर पांच साल में लगता है ये मेला, जहां नेताजी अपनी पूरी रंगबिरंगी दुकान सजाते हैं। 


सच पूछिए तो भारत अब केवल एक देश नहीं रहा, बल्कि एक मेगा स्टार्टअप है। इसके सीईओ हैं नेताजी, और डायरेक्टर्स हैं उनके ‘समर्पित’ चाटुकार। निवेशक? जनता जनार्दन, जो हर पाँच साल में वोट रूपी शेयर देकर इस कंपनी की नैया पार लगाने का असफल प्रयास करते है। कोई मुफ्त राशन बांटता है, कोई लैपटॉप, तो कोई साइकिल। एक बार तो नेताजी ने "चांद पर कॉलोनी" का वादा कर डाला! जनता ने तालियां बजाईं, वोट दिया, और फिर पांच साल तक चांद को ताकती रही। अब सवाल ये है कि ये बाजार कब तक चलेगा? जब तक जनता कंज्यूमर बनी रहेगी, तब तक। जिस दिन जनता समझ जाएगी कि देश कोई मॉल नहीं, बल्कि उसका घर है, शायद नेताजी को भी धंधा बदलना पड़े। तब तक, चलिए, एक और रैली में शामिल हो जाएं, नेताजी का नया स्लोगन सुनें—शायद इस बार सचमुच कुछ बदल जाए! (हंसते हुए) या शायद, अगला प्रोडक्ट लॉन्च हो जाए। जय हो बाजार की, जय हो धंधे की!


वैसे नेताजी शुरू से बिजनेस माइंडेड थे। बचपन में जब बाकी बच्चे पतंग उड़ा रहे थे, नेताजी गली में भाषण दे रहे थे – “यदि मुझे एक और गुलेल दी जाए, तो मैं मोहल्ले के सारे आम अपने पाले में कर लूंगा।” मोहल्ले की आंटियाँ प्रभावित होकर टॉफी देती थीं, और नेताजी तब से समझ गए थे – जुबान से जो निकले, बस विश्वास से बोलो। हकीकत हो न हो, भावनाएँ जरूर बिकेंगी। राजनीति में आते ही नेताजी ने घोषणा की – “देश को आगे बढ़ाना है।” जनता ताली बजाती रही, और नेताजी कॉन्ट्रैक्ट साइन करते रहे – सड़क का, पुल का, कभी-कभी बिना ज़मीन के हवाई अड्डे का भी। अब राजनीति एक मिशन नहीं, कमीशन का धंधा बन चुकी थी। जैसे किसी कंपनी में “कस्टमर हमेशा सही होता है”, वैसे ही यहां “वोटर सिर्फ चुनाव के वक्त सही होता है।” बाकी समय तो वह या तो ट्रैफिक में फंसा होता है या ट्विटर पर। 


इस स्टार्टअप का टारगेट मार्केट भी तय है – युवा, बेरोजगार और भावुक जनता। जब भी बाजार यानी देश में मंदी आती है, नेताजी नया प्रोडक्ट लॉन्च कर देते हैं – “देशद्रोह विरोधी योजना”, “धर्म सुरक्षा अभियान”, या “वोट-के-लिए-वीर जवान योजना”। इनमें लागत कम और इमोशनल रिटर्न ज्यादा होता है। इस कंपनी का एचआर डिपार्टमेंट भी खास है – योग्य उम्मीदवार की बजाय, वफादार उम्मीदवार को टिकट मिलता है। योग्यता अगर ज़रूरी होती, तो संसद की बहसें रियलिटी शो से बेहतर होतीं। ब्रांडिंग के लिए नेताजी सोशल मीडिया पर हर रोज़ फोटोशूट करवाते हैं – कभी गरीब के घर खाना खाते हुए, कभी खेत में हल चलाते हुए। इन तस्वीरों का वास्तविकता से उतना ही लेना-देना है, जितना सेल्फी स्टिक का असल संघर्ष से। कॉर्पोरेट जगत में CSR होता है – Corporate Social Responsibility, और राजनीति लिमिटेड में CSR का मतलब है – Create Sensational Rhetoric (रेटोरिक)। 


जनता अगर सवाल पूछे, तो उसकी देशभक्ति पर ही सवाल उठा दो। अब जनता धीरे-धीरे समझने लगी है कि जो राजनीति को धंधा समझते हैं, उनके लिए देश सिर्फ बाजार है – एक ऐसा बाजार, जहाँ वोट खरीदे जाते हैं, भावनाएँ बेची जाती हैं, और सच को फैंसी पैकेजिंग में झूठ बनाकर पेश किया जाता है। फिर भी, हर पाँच साल में “फ्री वाईफाई”, “फ्री लैपटॉप”, और “सबको नौकरी” जैसे स्कीम्स के नाम पर इस स्टार्टअप में नई फंडिंग आती है – और नेताजी एक बार फिर कंपनी के बोर्डरूम में अपने वादों की PPT लेकर जनता को लुभा लेते हैं। और अंत में, जनता यही सोचती रह जाती है – “हमें देश चाहिए था, इन्होंने बाजार बना दिया।”

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