लुधियाना में दो मासूम बच्चों के अपहरण के बाद नृशंस हत्या कर दी जाती है। पीड़ित परिवार पंजाब का स्थायी निवासी था। लगभग दो दशक पुरानी यह घटना है। इस हैरतअंगेज वारदात के चलते आम जनता में बौखलाहट चरम पर थी। स्वाभाविक भी था। जनता के नब्ज को बखूबी समझते हैं राजनेता। वह भी तब जब सामने चुनाव हो। तत्कालीन मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल ने मीडिया के किसी सवाल के जवाब में कहा कि पंजाब में अपराध बढ़ने की मूल वजह बाहर से आए कामगार है। दबाव में वफादार पुलिस भी थी। सो तुरंत हरकत में आई। एक सिनेमा हॉल से लेट नाइट फिल्म देखकर निकल रहे मजदूरों को हिरासत में ले ली। भीड़ में इन्हें पहचानना कोई बहुत मुश्किल काम नहीं होता। शक्ल सूरत, पहनावे और बातचीत की शैली ही काफी होती है। जाहिर है इस समुदाय के बाकी लोग भी दहशत में जीने को मजबूर हुए। मैं उन दिनों अमर उजाला जालंधर में था। और इस वारदात की आंच को बखूबी वहां भी महसूस कर रहा था। वजह भी थी। देर रात खबर आई तो पूरे प्रकरण पर चर्चा होने लगी। बाद में खुलासा हुआ कि अपहृत मासूम भाई-बहन का अपहरण उनके सगे चाचा ने ही फिरौती के लिए किया था। चूकि बच्चे चाचा को पहचान गए थे। छोड़ देने पर पोल खुल जाती। इसलिए निर्दयी चाचा ने गला दबा कर उन्हें मार डाला।
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पंजाब के सीएम कैप्टन अमरिंदर सिंह ने बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को इधर बीच फोन कर कहा है कि मजदूरों से रुके रहने की अपील करें। पंजाब उनकी देखभाल का बेहतरीन इंतजाम कर रहा है। इस खबर को पढ़ने के बाद बरबस यह बात याद आ गई। कैप्टन अमरिंदर बखूबी समझते हैं कि पंजाब जैसे अमीर राज्य की इकनॉमी के लिए ये बेहद जरूरी लोग हैं। जीडीपी, सेंसेक्स, फॉरेन रिजर्व और इंटरेस्ट रेट सरीखे भारी भरकम शब्द इंटेलेक्चुअल जुगाली को लिए तो ठीक हैं, मगर जब भी अर्थव्यवस्था की जमीनी हकीकत को समझना हो तो इन मजदूरों की माली हालत को पूरी संवेदना के साथ परखना जरूरी होगा। पंजाब भारत का वह पहला राज्य था जिसके किसानों के हाथों में मोबाइल पहुंचा था। संभव है स्मार्ट फोन के मामले में यह बात लागू होगी। कृषि प्रधान राज्य है पंजाब. इसकी रीढ़ हैं ये अन्य प्रदेशों से आए सीजनल मजदूर। फसल काटने, मकान, पुल, सड़क बनाने, गाड़ियां चलाने और टेक्सटाइल मिलों में काम करने के साथ तमाम आर्थिक गतिविधियों में यह तबका अपनी दमदार मौजूदगी दर्ज करवाता है। भारत के कुल वर्क फोर्स का यह 20 फीसदी हिस्सा है। मगर अपने गांव देहात से रोटी की आस में निकले इस तबके संग देश के ज्यादातर महानगरों ने बहुत बुरा बर्ताव किया।
नवभारत टाइम्स में एक खबर है कि सूरत में वाराणसी के एक टेक्सटाइल मजदूर राधेश्याम त्रिपाठी ने कहा कि उन्हें कुत्तों की तरह भगाया गया, जब वे घर जाने की कोशिश कर रहे थे। घर जाने के लिए पूरी पॉकेट मनी उन्होंने खर्च कर दी, फिर भी उन्हें प्रताड़ित किया गया और वापस भेज दिया गया। उनका अपराध सिर्फ इतना है कि वे घर जाना जाहते हैं। अगर गुजरात में उनके साथ ऐसा ही सलूक होता रहा तो वे कभी वापस नहीं लौटेंगे। पुलिस ने मजदूरों की भीड़ को तितर-बितर करने के लिए 40 आंसू गैस छोड़े और लाठीचार्ज किया। इसके वीडियो सामने आए जिसमें पुलिस लाठी लेकर मजदूरों को गलियों में दौड़ाते हुए नजर आई। इस घटना के बाद 200 लोगों को हिंसा फैलाने के आरोप में गिरफ्तार किया गया है। आईजी (सूरत रेंज) राजकुमार ने बताया, 'करीब 3,000 मजदूरों हिंसा में शामिल थे जिनमें से कुछ ने पुलिस पर ऐसिड की बोतलें भी फेंकी. अहमदाबाद और वलसाड जिले में भी हजारों मजदूर आंदोलित हैं। पुलिस फोर्स उन्हें संभाल रही है। इसी तरह बेंगलुरु में भी पुलिस और घर वापस जाने की जिद पर अड़े मजदूरों के बीच संघर्ष देखने को मिला। वहां भी लाठी चार्ज की सूचना है। पुणे में भी वारजे पुलिस थाने में भी मजदूरों पर लाठी भांजी गई है। यूपी के बलरामपुर निवासी मजदूर मोहम्मद हनीफ की माने तो मुंबई के साकीनाका में पुलिस मजदूरों के पैर पर बेखटके लाठी भांजती रही। तमिलनाडु के तिरुपुर में भी मजदूर सड़क पर उतर चुके हैं। दिल्ली का नजारा अब भी भूला नहीं है।
मात्र चार घंटे की नोटिस पर बिना किसी प्लानिंग के लाकडाउन। नियोक्ताओं ने भी आदेश का अक्षरशः पालन करते हुए तालाबंदी का ऐलान कर दिया। साथ में जगह खाली करने का फरमान भी सुना दिया। आखिर अब ये मजदूर कहां जाएं? इन मजदूरों के हितों की रक्षा के लिए इस देश में कोई कारगर कानून भी नहीं है। ले देकर Inter-State Migrant Workmen Act, 1979 का उल्लेख भर मिलता है। इससे बड़ी विडंबना क्या होगी ये मजदूर ऐसी सुरंग में फंसे हैं, जहां से लौट कर सही सलामत घर भी नहीं आ पा रहे हैं। पार्टी पॉलिटिक्स को ताक पर रखिए, केंद्र का रवैया बताता है कि वह एक सर्विस प्रोवाइडर एजेंसी भर है, गेंद राज्यों के पाले में है। मजदूर टिकट कटा कर ही ट्रेन में चढ़ रहे हैं। और हमारी मीडिया का गणित इतना कमजोर है कि 85% और 15% उसके पल्ले ही नहीं पड़ रहा। पोस्टमैन की तरह वह खबर नहीं, लिफाफा जस का तस परोस रहा है, बस ब्रांडिंग के लिए अपनी मुहर लगा दे रहा। कल रात से अब तक बीसों खबरें विभिन्न पोर्टलों पर पढ़ चुका हूं। द टेलीग्राफ (कोलकाता) को छोड़कर किसी ने भी गुत्थी को सुलझा कर समझाने की गलती नहीं की है।
इस मुल्क के औद्योगिक क्रांतिकारी बखूबी इस बात को जानते हैं कि इन मजदूरों के बगैर उनका साम्राज्य नहीं खड़ा रह सकता। पंजाब से लेकर गुजरात और तमिलनाडु तक की अमीरी के नींव की ईंट यही मजदूर है और लॉकडाउन खत्म होने के तत्काल बाद लालटेन लेकर इन्हें ढूंढना औद्योगिक घरानों की मजबूरी होगी। मोटे तौर पर अनुमान है कि ये मजदूर अपनी कमाई का एक तिहाई यानी देश की जीडीपी का लगभग दो फीसदी अपने घर भेजते हैं. प्रिंट में पब्लिश अनुजा भट्ट की एक रिपोर्ट के मुताबिक यह रकम लगभग 4 लाख करोड़ रुपये बैठती है। यह पैसा मुख्य रूप से बिहार, उत्तर प्रदेश, ओडिशा, राजस्थान, मध्य प्रदेश और झारखंड जैसे राज्यों में जाता है। इसलिए प्रदेश चाहे गरीब हो या अमीर, उनकी अर्थव्यवस्था में इन मजदूरों की भूमिका की अहमियत को बखूबी समझा जा सकता हैं। वैसे राजनेताओं के अक्ल के ताले सिर्फ चुनावों के दौरान खुलते हैं। आज अगर आम चुनाव होते तो हालात शायद कुछ और होते।
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