सबसे ज्यादा विकास तो बिना पेंदी के लोटे का हुआ! ये कहावत आजकल हर गली-नुक्कड़ पर गूंज रही है। कभी सोचा, ये लोटा इतना 'विकसित' कैसे हो गया?
बात शुरू होती है हमारे प्यारे लोटे की बेफिक्री से। बिना पेंदी का ये महानायक कहीं भी लुढ़क जाता है, बिना रुके, बिना थके! विकास के नाम पर बने फ्लाईओवर, जो आधे-अधूरे रह गए, लोटा उन पर भी लुढ़कता है। स्मार्ट सिटी के सपनों में, जहां नालियां जाम और सड़कें टूटी हैं, लोटा बिना शिकायत चमकता है।
भाषण देते हैं, "विकास हो रहा है!" और लोटा हंसता है, "भाई, मैं तो बिना पेंदी के ही ट्रेंडिंग हूँ!" न कोई नीति, न नियोजन, बस लुढ़कते रहो। आज लोटा स्टार्टअप्स को प्रेरणा दे रहा है—बिना आधार, बिना संसाधन, सिर्फ लुढ़कने की कला! हे वत्स, लोटे से सीखो, बिना पेंदी के भी विकास का रिकॉर्ड तोड़ो!
यूं ही नहीं, विकास की दौड़ में सबसे आगे निकला – बिना पेंदी का लोटा। जिस दिशा में हवा चली, लोटा वहीं लुढ़क गया। न नीयत स्थिर, न दिशा तय, मगर विकास ऐसा कि पूछो मत! कभी झंडा उठाए, तो कभी सड़क पर तिरंगा लहराए। जल संरक्षण पर भाषण देता हुआ खुद पानी बहाता चला जाए।
नेताओं ने उसे अपना आदर्श बना लिया है – न टिकने की जरूरत, न जवाबदेही की चिंता। कल जो मुद्दा था, आज वो भूला दिया। हर हफ्ते नई योजना, हर महीने नया वादा। पर नतीजा? लोटा फिर से खाली।
और जनता? वो हर बार सोचती है, "इस बार शायद लोटा किसी ठिकाने पर टिकेगा," लेकिन लोटा फिर से घूम जाता है। आखिर, सबसे ज्यादा फ्लेक्सिबल वही है – बिना पेंदी का लोटा! यही है असली 'विकास मॉडल'।
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