जब सोशल मीडिया पर 'न्यूज़ की मौत' हैशटैग ट्रेंड करने लगा
विजय शंकर पांडेय
अपने देश में टीवी ऑन करो तो या तो कोई नागिन बर्फ़ में नहा रही होती है, या कोई एंकर "ब्रेकिंग न्यूज़" के नाम पर चिल्ला रहा होता है कि "अभी-अभी मिली जानकारी के अनुसार..." — फिर स्क्रीन पर उड़ता हुआ लाल पट्टी वाला ब्रेकिंग न्यूज का धमाका, "राहुल गांधी ने खांसा! बीते 70 साल में किसी ने खांसने की गुस्ताखी नहीं की। आइए, जानते है इस असंसदीय हरकत पर क्या है वरिष्ठ सांसद कंगना रनौत की राय।"
मनोरंजन चैनल वाले खुद सीरियल के प्लॉट भूल जाते हैं, तो जनता खबरिया चैनलों में नया-नया एंटरटेनमेंट ढूंढ़ने लगती है। वहाँ एंकर ऐसे गरजते हैं, जैसे राष्ट्र सुरक्षा उनके गले में ही फंसी है।
बाथटब में 'डूबने' से फिल्म स्टार श्रीदेवी की मौत हो गई थी। दुबई पुलिस इसे दुर्घटना करार दिया। कुछ न्यूज़ चैनल ने 'बाथटब का सेट' लगाकर अपना विशेष शो दिखाया तो तो कुछ ने एक कदम आगे जाकर 'टब में तैरती हुई श्रीदेवी' को दिखाया। एक अन्य टीवी चैनल ने 'टब के बगल में बोनी कपूर' को खड़ा कर दिया। और सोशल मीडिया पर 'न्यूज़ की मौत' हैशटैग ट्रेंड करने लगा। कई वरिष्ठ पत्रकारों और आम लोगों ने भी ऐसी 'सेंसेशनल रिपोर्टिंग' की खुलकर आलोचना की।
कॉरपोरेट मालिक और न्यूज मैनेजमेंट वाले सोचते हैं – "अगर चिल्लाने से साबुन तेल बिक सकता है, तो खबर भी बिकेगी!
जनता पूछती है – "सच कहां है?"
मीडिया मुस्कुराता है – "ब्रेक के बाद बताएंगे!"
और ब्रेक में... तेल, साबुन और टूथपेस्ट का खालिस बवंडर।
हिंदी पत्रकारिता दिवस पर ऐसे टीआरपी योद्धाओं को विशेष तौर पर बधाई।
एक दौर था जब पत्रकारिता दबे कुचले निरीह लोगों की ताक़त मानी जाती थी, अब तो बस टीआरपी की तलवार है। पहले संवाददाता गाँव के कुएँ से पानी की सच्चाई निकाल लाता था, अब वो पाँच सितारा स्टूडियो में बैठकर ब्रेकिंग न्यूज़ की चाय पीता है – “आज सबेरे सूरज निकला, क्या ये चीन की साजिश है?” पहले पत्रकार ‘जनता की आवाज़’ थे, अब ‘विज्ञापनदाता की गुलाम’ हैं। हिंदी पत्रकारिता अब 'हिंदी मीडियम' के बच्चों जैसी हो गई है – न पढ़ाई में टॉप, न स्टाइल में कूल। पत्रकारिता अब “जनता जानना चाहती है” से “जनता देखना चाहती है डांस” तक पहुँच गई है। तो आइए, इस पत्रकारिता दिवस पर ‘जनसरोकार वाली पत्रकारिता’ की आत्मा को श्रद्धांजलि दें – शायद अगली ब्रेकिंग न्यूज़ में वही भूत बनकर लौटे!
भारत में खबरिया चैनल क्यों चलते हैं? क्योंकि मनोरंजन चैनल तो 'सास-बहू' के ड्रामे में उलझे हैं, सो जनता को मसाला न्यूज़ चैनलों से ही मिलता है! आवारा पूंजीवाद ने मीडिया को ऐसा भटकाया कि खबरें अब 'तेल-साबुन' की तरह बिकती हैं। कॉरपोरेटिज्म ने पत्रकारिता को मॉल का माल बना दिया—'ब्रेकिंग न्यूज़' के नाम पर चाय की चुस्की और सनसनी का तड़का! जनोन्मुख पत्रकारिता? वो तो अब 'स्पॉन्सर्ड ट्वीट' और 'पेड न्यूज़' की भेंट चढ़ गई।
एंकर चीखता है, "देश जानना चाहता है!" लेकिन देश तो बस रिमोट थामे सोचता है, "बस करो भाई!" पूंजीवाद का पैसा खनकता है, तो खबरें नाचती हैं—कभी डिटर्जेंट बेचतीं, कभी सियासत चमकातीं। फिर भी, कुछ ज़िद्दी पत्रकार सच की तलाश में डटे हैं। बाकी? वो तो 'TRP की होली' में रंग जमाते हैं!
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