सब कुछ बहा ले गई

 विजय शंकर पांडेय  


पहाड़ रो रहा है।

लेकिन जेसीबी हंस रही है।


पेड़ गिरे,

रास्ते बने।

अब रास्ते खुद गिर रहे हैं।


कहा था — "विकास होगा!"

हुआ — विनाश!


सड़क चौड़ी हुई।

नदी सिकुड़ गई।

सुरंगें आईं।

जड़ें सिहर उठीं।


जहाँ पहले चिड़ियाँ चहचहाती थीं,

अब हॉर्न बजता है।

जहाँ पानी रिसता था,

अब रिसाव हो गया है।


"पर्यटन बढ़ेगा!"

बढ़ गया ट्रैफिक।

"आर्थिक लाभ मिलेगा!"

मिल गई आपदा।


पहाड़ अब रिसॉर्ट नहीं,

रिपोर्ट बन चुके हैं —

भूस्खलन की रिपोर्ट।


नाला बोला —

"मुझे मत रोको!"

इंसान बोला —

"यहाँ पार्किंग बनेगी।"


जलस्रोत बोले —

"हमें सांस लेने दो!"

बिल्डर बोला —

"यहाँ स्विमिंग पूल बनेगा।"


फिर बरसात आई।

सब कुछ बहा ले गई।

सिवाय इंसानी मूर्खता के।


अब भी वक्त है —

पहाड़ को पहाड़ रहने दो।

वरना पहाड़ की दहाड़ 

किसी को नहीं बख्शेगी।



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