रोजी रोटी के लिए सीधे कलकत्ता का रूख

 विजय शंकर पांडेय 



नब्बे की दशक की बात है. कोलकाता के ब्रिगेड परेड ग्राउंड में एक जनसभा को संबोधित करते हुए तत्कालीन मुख्यमंत्री ज्योति बसु ने कहा था - 'नॉन बांगाली महानगर कलकत्ता की अर्थव्यवस्था की रीढ़ हैं. उनकी आबादी (तब) बृहत्तर कलकत्ता में लगभग 60 फीसदी है.' आज महानायक कॉमरेड ज्योति बसु की जयंती भी है, विनम्र श्रद्धांजलि.


उसके बाद द टेलीग्राफ ने इस तबके पर एक स्टोरी प्रकाशित किया था. जिसमें इस आबादी की महत्ता को रेखांकित किया गया था. उसके मुताबिक फुचका (गोलगप्पा, पानी बताशा) वाला से लेकर टाटा-बिड़ला तक इस महानगर को अपने अपने ढंग से समृद्ध किए हैं. हां, बड़े व्यवसायी और उद्योगपतियों में राजस्थान और हरियाणा के लोगों की बहुलता थी. मगर वह दौर ऐसा था कि बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश के लोग रोजी रोटी के लिए सीधे कलकत्ता का रूख किया करते थे. पूरा का पूरा भोजपुरी लोक साहित्य इस बात की तस्दीक़ करता है. पूर्वांचल में जौनपुर और इर्दगिर्द के लोगों का पसंदीदा डेस्टिनेशन मुंबई हुआ करता था. 


ज्योति बसु द्वारा इस इस समुदाय की महत्ता की बखान की एक राजनीतिक वजह भी थी. ग्रामीण बंगाल उस दौर में वाम मोर्चा का अभेद्य किला माना जाता था, मगर शहर, विशेष तौर पर महानगर में कांग्रेस से कांटे का मुकाबला हुआ करता था. चूंकि अप्रवासियों के मूल राज्यों (यूपी, बिहार, राजस्थान और हरियाणा) में कांग्रेस का शासन हुआ करता था, इसलिए बंगाल में उन्हें कांग्रेसी मान लिया जाता था. हालांकि नब्बे के दशक में वाममोर्चा ने इस वोट बैंक पर भी कब्जा कर लिया था. मगर अब हालात बदल चुके हैं. 


आज बीबीसी की एक स्टोरी पढ़ रहा था - यूपी-बिहार के लोगों का ठिकाना बन रहा है दक्षिण भारत. इसमें विग्नेश ए ने लिखा है - 'दक्षिण में उत्तर भारतीयों की बढ़ती जनसंख्या से वहां कुछ नए तरह की आर्थिक गतिविधियां भी शुरू हो गई हैं जैसे दक्षिण भारत में उत्तर भारतीय खान-पान से जुड़े रेस्टोरेंट का खुलना.' 


मेरी राय में इस देश की कई समस्याओं का समाधान कॉस्मोपॉलिटन (सर्वदेशीय) मन और मिश्रित संस्कृति से ही संभव है. बंगाल इसका सबसे बेहतर उदाहरण है. मौजूदा मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने वहां हिंदी विश्वविद्यालय नींव रखी है. हिंदी पत्रकारिता की तो जन्मभूमि है ही, बल्कि भोजपुरियों का दुनिया का सबसे बड़ा महानगर है कोलकाता. हिंदी साहित्यकारों का भी गढ़ है. स्वतंत्रता आंदोलन का आगाज ही वहां से होता है. किसी हिंदी पट्टी के राज्य में आपको यह औदार्य नहीं मिलेगा.

टीन शेड में चल रहे तब के मेरे प्राइमरी स्कूल में चौथे क्लास में बोर्ड के बांग्ला और हिंदी माध्यम के बच्चों और शिक्षकों का ग्रुप फोटो।


इत्तफाक से पिछले दिनों बंगाल (अपने घर) जाने का मौका मिला तो मैं अपने प्राइमरी स्कूल श्री शिक्षा सदन में भी गया था. हालांकि गर्मी की छुट्टी की वजह से स्कूल बंद था. आम बोलचाल में हम आज भी इस स्कूल को टीना यूनिवर्सिटी ही कहते हैं. कारण पहले इसकी दीवारें व छज्जा वगैरह टीन की हुआ करती थी. 1975 में क्लास IV के बोर्ड एक्जाम के बांग्ला और हिंदी परीक्षार्थियों में मैं भी शामिल था. दीनबंधु कॉलेज, शालीमार, हावड़ा में हमारा सेंटर पड़ा था. परीक्षा के लिए रवाना होने से पहले ग्रुप फोटो सेशन हुआ. पहली बार बोर्ड परीक्षा में शामिल होने का अनुभव अद्भुत था. इस परीक्षा में अच्छे नंबर से पास होने पर मुझे पुरस्कार के तौर पर किताबें मिली थीं. आठवीं तक बांग्ला मेरा एक विषय भी रहा, बतौर थर्ड लैंग्वेज.






नए परिसर की तस्वीर मेरे भतीजे पीयूष ने ली है. 



#REPOST #7जुलाई2018 पुनर्संपादन के बाद.





07 जुलाई 2018



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