नाना तो मेरे विशुद्ध जीवट किसान थे। वह भी गंगा के दीयर वाले। जीवट इस कारण भी लिखा कि हर साल टोंस और गंगा की बाढ़ संग ओल्हा-पाती खेलना और यूपी-बिहार बॉर्डर से बुआई-सिंचाई के बाद अपनी फसल काट कर घर ले आना युद्ध जीतने सरीखा था। कारण, वहां तब सिर्फ़ लाठी की ही भाषा चलती। हालांकि यह बात कई दशक पहले की है, मगर आज भी उन इलाकों से लहलहाती फसलें लूट लिए जाने और खून खराबे की खबरें आती हैं।
ऊपर से सब कुछ टोंस और गंगा मइया की मेहरबानी पर निर्भर था। बलिया में मेरा ननिहाल (गांव) इन दो नदियों के बीच है। खेत ज्यादातर गंगा पार। तब उस गांव के लोग पूरी तरह से नदियों पर ही निर्भर थे। सबसे सांसत महिलाओं की थी। उजाला होने से पहले नहा धोकर घर लौटना मज़बूरी होती। इस दौरान कई महिलाओं की डूबने से मौत भी हो गई थी। हालांकि मेरी माई उम्दा तैराक है। नदी की तेज धारा की चपेट में आकर बह रही अपनी चचेरी बहन को मझधार में से मां ने सही सलामत खींच निकाला था। मैं इस घटना का चश्मदीद रहा हूं।
मेरे नाना को मेरे बाबा की ही भांति चाय का चस्का था। जबकि तब ठेठ देहात में चाय का चलन आज की तरह नहीं था। मेरे बाबा तो हावड़ा में कभी रहते थे तो यह शौक उन्हें पश्चिम बंगाल से गिफ्ट मिला था। मगर नाना को यह चस्का पैतृक विरासत में मिला था। मेरे परनाना दोनों भाई हावड़ा में ही नौकरी करते थे। इसी वजह से खेती किसानी नाना के जिम्मे थे। जाहिर है चाय ने बरास्ते बंगाल वहां पैठ बना लिया। मेरे बाबा और नाना दोनों की चाय लोटे में ही आती थी। वहां से गिलास या कटोरी में बंटती।
मेरे नाना के सगे छोटे भाई हट्ठे कट्ठे कद काठी के पहलवान थे। मुझे वे बहुत मानते थे। अपने कंधे पर बिठा लंबी लंबी दूरी इत्मीनान से तय कर लेते थे। वजह भी थी, तब साइकिल के सिवाय और कोई साधन गांवों में था नहीं। वैसे भी शहर से उनका दूर दूर तक कोई वास्ता नहीं था। मेरे नाना के रोबदार व्यक्तित्व के मुकाबले उनके छोटे भाई पहलवान होने के बावजूद कोमल हृदय सहज सरल थे। तब अक्सर हम हर साल समर वेकेशन में कुछ दिन अपने गांव और कुछ दिन अपने ननिहाल में गुजारते थे।
मेरी मां के चाचा ने ही एक किस्सा सुनाया था। दूध उपलब्ध नहीं था, फिर भी नाना के कहने पर काली चाय बनाई गई। नाना के कोई बुजुर्ग मित्र भी वहां मौजूद थे। चाय की चुस्की पहली बार उन्होंने भी ली। उन्हें बहुत पसंद आई। घर पहुंचकर उन्होंने भी हाथ आजमाया। झटके में उन्होंने चायपत्ती को खैनी (सूर्ती) समझ लिया था। पानी उबाल कर उन्होंने हाथ से ही बारीकी से नोची गई सूर्ती डाल दिया, मगर जब वह हलक से नीचे गई.....
21 मई 2024
#TeaDay
#InternationalTeaDay
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