रोजमर्रा के संघर्षों की हकीकत को फ़साने में तब्दील करने की महारत

 

विजय शंकर पांडेय


अपने इर्द गिर्द की दुनिया पर पूरी संवेदना से पैनी नजर रखना और उसे करीने से अभिव्यक्त कर देना बतौर पत्रकार साहित्यकार अभिज्ञात का पेशेवर धर्म है। वे अपने पेशे के प्रति पूरी तरह से न्याय करते हैं, इस बात की तस्दीक उनकी कहानियां भी करती हैं। साहित्य सृजन के मामले में आम धारणा है कि लेखक जिस क्लास से सम्बन्ध रखता है, उसके लेखन में उस वर्ग की संवेदना अधिक रच-बस जाती है। उनकी रचनाओं में सामाजिक समस्याओं को अपने अनूठे अंदाज में अलग ढंग से परोसने की विशेषताएं मौजूद है। उनकी कहानियों में रोजमर्रा की घटनाओं का जिक्र सहज ही सुलभ है। नतीजतन वे आमजन के बीच पूरी ठसक के साथ पैठ बनाते हैं। साथ ही ज्वलंत मुद्दों को अभिव्यक्त करते नजर आते हैं। आम लोगों के संघर्षों और हकीकत को फसाने में तब्दील करने में अभिज्ञात माहिर हैं। वे खुद स्वीकार भी करते हैं कि “कल्पना से रचना में एक नई चमक पैदा होती है।“ हाल ही में प्रकाशित उनका कहानी संग्रह "मुझे विपुला नहीं बनना" की कहानियों से गुजरते हुए बरबस वृहत्तर कोलकाता पहुंचा जा सकता है। अग्रज कथाकार संजीव जी कहते हैं कि "अभिज्ञात ने द्वंद्व और आस्था के नए और अनछुए दिगंत खोले हैं। कहानी में बिम्ब कैसे बनते हैं और किस प्रकार के निर्वाह से वे अलंकरण नहीं रह जाते, इसका निर्वाह बड़ी कला है। इससे भाषिक सरंचनाएं दीर्घजीवी हो जाती हैं।" 




मराठी छोरे की एक बंगाली बाला से मुठभेड़

लोकोदय प्रकाशन, लखनऊ से प्रकाशित कुल 112 पेज की 23 कहानियों के इस संग्रह की कई रचनाएं शीर्षस्थ पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित भी हो चुकी हैं। इस संग्रह की पहली कहानी “मुझे विपुला नहीं बनना” में बिकाऊ स्टोरी की तलाश में नागपुर से पत्रकार निखिल आनंद पहुंचता है कोलकाता। विपुला की तलाश में कालीघाट इलाके में मराठी छोरे की एक बंगाली बाला से मुठभेड़ हो जाती है। जाने अन्जाने लजाते सकुचाते वह यामिनी को दिल भी दे बैठता है। यामिनी विपुला की ही भांति एक सेक्स वर्कर है। प्रेम और समर्पण के चक्कर में अपना सब कुछ गंवा चुकी विपुला का हस्र देख यामिनी दो टूक जवाब देती है कि "मुझे विपुला नहीं बनना।" यह कहानी देह व्यापार से जुड़ी महिलाओं की जिंदगी की त्रासदी बखूबी बयान करती है। 


यथास्थितिवाद के खिलाफ प्रतिरोध

अपने काव्य संग्रह “जरा सा नास्टेल्जिया” की प्रस्तावना में अभिज्ञात ने लिखा था- "कोशिश है कि विषम परिस्थितियों में भी यथास्थितिवाद के खिलाफ प्रतिरोध दर्ज हो। हाशिए पर पड़े लोगों, मनोभावों और सामाजिक मूल्यों की हिमायत में कहीं ये कविताएं भी खड़ी दिखाई दे जाएं तो मैं अपने लिखे को सार्थक समझूंगा।" गौर कीजिए तो वे कहानी विधा में भी यथास्थितिवाद के खिलाफ प्रतिरोध दर्ज करने में चूक नहीं रहे। इसी संग्रह में “नौंवा फेरा”, “महाभीम का जीवन” और “एक आजाद देश का इतिहासः पुनर्पाठ” शीर्षक मार्मिक कहानियों को पढ़ते वक्त बरबस बांग्लादेशी कवि रफ़ीक़ आज़ाद आ जाते हैं। रफ़ीक़ आज़ाद ने “भात दे हरामजादे” शीर्षक कविता बांग्लादेश में अकाल के दौरान लिखी थी। जब-जब किसी भी देश में कोई गरीब भूख का शिकार होता है, तब-तब यह कविता सड़ी-गली व्यवस्था का सीना चीरने के लिए तन कर खड़ी नजर आती है। “नौंवा फेरा” में मात्र आलू-भात के लिए बेटे की मौत को कलेजे में ही दफन कर देने की मां-बाप की विवशता बहुत गहरे तक वेधती है। इसी तरह बच्ची की इलाज के लिए पैसे जुटाने में विफल रहे “महाभीम का जीवन” जमीनी सच्चाई से रूबरू करवाती है। “एक आजाद देश का इतिहासः पुनर्पाठ” शीर्षक कहानी में ग्रामीणों को सामूहिक दुःख लड़ने के लिए एकजुट कर देता है। 43 ग्रामीणों की बर्बर हत्या के बावजूद सरकार बहादुर की पुलिस अपनी जान बचाने के लिए ग्रामीणों संग लीपापोती में जुट जाती है। आखिरकार सच और झूठ का कॉकटेल और मॉकटेल परोसने में माहिर शुक्रवार राष्ट्र प्रमुख बन जाता है। प्रकारांतर में अंग्रेजी राज के बहाने कहानीकार मौजूदा दौर में दुखती रग पर हाथ रखते नजर आते हैं।  


लोअर मिडिल क्लास की जद्दोजहद

सर्वाधिक उपेक्षित मध्य वर्गीय परिवारों की हालत अमूमन सबसे दयनीय होती है। मध्य वर्गीय परिवारों के लोग और विशेष तौर पर उनके बच्चे ज्यादा संघर्ष करते नजर आते हैं। सही मायने में आम आदमी इसी वर्ग के लोगों को कहा जा सकता है। “पुण्यपद पटनायक उर्फ पद्दो का पलायन” और “निहाई” में लोअर मिडिल क्लास के बच्चों और उनके अभिभावकों की जद्दोजहद बखूबी बयां हुई है। मध्यमवर्गीय परिवारों में कम्युनिकेशन गैप आम बात है। बेटियों की शादी के लिए अपना सब कुछ गवां देने के बाद पिता-पुत्र का गले लिपट कर रोना और उनके गर्म आंसुओं में एक दूसरे के प्रति सारे गिले शिकवे धो डालना अंततोगत्वा कसक भरी राहत देता है। इसी तरह पृष्ठभूमि वाली “निहाई” शीर्षक कहानी का क्लाइमेक्स भी शकुन देता है। आखिरकार साबित होता है कि प्रीतीश का रोल मॉडल यार कमल पराजित नहीं हुआ। 


निराले अंदाज में मिथ गढ़ते हैं अभिज्ञात

गरीब परिवार के लड़के और सम्पन्न परिवार की लड़की के बीच पनपे प्रेम के परिणति तक न पहुंच पाने की कहानी है “प्रेत बाधा”। पारिवारिक और आर्थिक दायरे के द्वंद्व की इस कहानी का नायक गिरीश चाह कर भी अपने प्रेम का समय रहते खुलकर इजहार नहीं कर पाता और आखिरकार हार जाता है। अभिज्ञात कैसे निराले अंदाज में मिथ गढ़ते हैं, यह “सोनकली और अशोकवृक्षः एक दंतकथा” से जाहिर होता है। 


कर्ज से लदे पिता की मुक्ति के लिए नाबालिग की शादी

“विदाई से पहले”, “वह तो मर गये” और “संगीत” शीर्षक कहानियों में स्त्री का जीवन, संघर्ष और स्वप्न मुखर रूप में व्यक्त हुआ है। भूमंडलीकरण, जो प्रकारांतर में भूमंडीकरण ही है, की आड़ में लाख ढिंढोरा पीटा जाए कि स्त्रियां पहले की तरह बेड़ियों में जकड़ी अब नहीं रही, पर वे पूरी तरह आजाद भी नहीं हुई हैं। “विदाई से पहले” शीर्षक कहानी इस बात की तस्दीक करती है। कर्ज से लदे पिता की मुक्ति के लिए नाबालिग कुसुम अपने हम उम्र रोहण के विवाह प्रस्ताव को ठुकरा देती है। साथ ही अपनी सौतेली मां के दुखद वैवाहिक जीवन का हवाला भी देती है। कहती है कि गांव वालों के ताने उसकी सौतेली मां और पिता आखिर कैसे सह पाएंगे? और पिता के उम्र के पति संग ससुराल विदा हो जाती है। “वह तो मर गये” शीर्षक कहानी में लव मैरिज न करने की हिदायत देते लेखक शिवमंगल जी कहीं न कहीं अपनी पत्नी की अपेक्षाओं पर खरा न उतरने की पीड़ा ही बयान करते हैं। उधर, “संगीत” शीर्षक कहानी में म्यूजिक टीचर रावत सर के बात व्यवहार में गंभीर रूप से बीमार पत्नी के चलते काफी बदलाव आ जाता है। गौरतलब है कि परिवार से बगावत कर उन्होंने लव मैरिज की थी, मगर होनी को कुछ और ही मंजूर था। 


बड़े बड़े सपनों के टूटने की ध्वनि

इसी तरह “सम्मान,” “छोटे छोटे डर” और “बड़ी लड़ाइयां” शीर्षक कहानियां अल्प या मध्यम आयवर्ग के परिवारों के कश्मकश और बड़े बड़े सपनों के टूटने की ध्वनि बखूबी बयान करती है। “सम्मान” शीर्षक कहानी में जगदम्बिका की उम्मीदों पर पानी फिर जाता है। इसके बाद उसकी ढिठाई देख कुत्ते भी भौंकना बंद कर देते हैं। “छोटे छोटे डर” शीर्षक कहानी यह बयान करने के लिए काफी है कि कहानीकार कितनी संजीदगी से आम घरों में होने वाली बारीक हरकतों को भी नोटिस लेता है। “बड़ी लड़ाइयां” शीर्षक कहानी में संदीप सिर्फ पेट भर भोजन की कीमत महत्वपूर्ण मैच हार कर चुकाता है। 


“कोरोना लाइव” शीर्षक कहानी महामारी के भयावह दौर की जीवंत तस्वीर प्रस्तुत करती है। भारी तादाद में उस वक्त पत्रकारों समेत अन्य लोगों ने दम तोड़ा, मगर इस कहानी के नायक यतींद्र की भांति ही उनकी भी मेडिकल रिपोर्ट इस बात की तस्दीक करती है कि उनमें कोविड- 19 के कोई लक्षण नहीं पाए गए। वे अन्य बीमारियों के चलते दुनिया से कूच कर गए। चलते चलते सीख, ईर्ष्या, अहमक, क्लास, झगड़े, वसूली दर वसूली, मां और समझदारी शीर्षक लघुकथाएं सतसइया के दोहरे की तर्ज पर घाव गंभीर करती हैं।

05 अप्रैल 2023

लोकोदय प्रकाशन, लखनऊ से हाल ही में प्रकाशित कहानी संग्रह "मुझे विपुला नहीं बनना" पर एक नजर 


साभार - नेशनल व्हीलस, प्रयागराज

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