विजय शंकर पांडेय
अब बहस करने का मन नहीं करता
लोग जीत जाते हैं
हम बस मुस्कुरा देते हैं
पहले दुनिया बदलनी थी
अब चैन से सोना है
कभी रिश्ते निभाने को भागते थे
अब कॉल तक काट देते हैं
उम्मीदें भी बड़ी सयानी हो गईं
अब किसी से ज्यादा अपेक्षा नहीं रखतीं
बचपन में ख्वाब आसमान छूते थे
अब छत की सीलिंग तक सीमित हैं
कभी बातें खत्म नहीं होती थीं
अब शुरू ही नहीं होतीं
जोश तो अब भी है
मगर इच्छाएं ठिठक जाती है
मेमोरी फोन में भरती जा रही है
दिमाग से मिटती जा रही है
कभी दुनिया जीतनी थी
अब बस शांति चाहिए
कमरे में खामोशी है
बाहर शोर बहुत है
मगर फर्क ही कहाँ पड़ता है?
पता नहीं यह वक्त का तकाज़ा है,
या खोती जा रहीं उम्मीदें।
26 मार्च 2025
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