विजय शंकर पांडेय
अर्थशास्त्र में हम कृषि प्रधान देश हैं,
पर फसलें अब भाषणों की ही उगती हैं।
धान-गेहूं नहीं, वादों की बोआई होती है,
और बारिश का काम करती है चुनावी अधिसूचना।
राजनीति में हम धर्म प्रधान देश हैं,
हर बहस का अंत मंदिर-मस्जिद से होता है।
मुद्दा कुछ भी हो — महंगाई, शिक्षा या बेरोजगारी,
नतीजा एक ही, “आस्था हमारी भारी!”
जाति की जड़ों में इतनी खाद पड़ी है,
कि विकास का पौधा वहीं सकपका रहा है।
आरक्षण में रिश्ते टूटते हैं,
और जाति सम्मेलन में नेता फूलते हैं।
गरीब किसान अब मीम बन गया है,
और धर्मगुरु “ब्रांड एंबेसडर।”
संविधान किताब में है,
धरातल पर बस “वोटबैंक” है।
नारा वही पुराना — “सबका साथ, सबका विकास”,
पर असल में “अपनों का साथ, बाकी का त्रास।”
कृषि में हम खेत जोतते हैं,
पर राजनीति में दिल।
और दोनों जगह,
लाभ वही उठाता है — जो “कुर्सी” हथियाता है। 🌾🗳️
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