राजनीति में दिल जोतते हैं

 विजय शंकर पांडेय 



अर्थशास्त्र में हम कृषि प्रधान देश हैं,

पर फसलें अब भाषणों की ही उगती हैं।

धान-गेहूं नहीं, वादों की बोआई होती है,

और बारिश का काम करती है चुनावी अधिसूचना।


राजनीति में हम धर्म प्रधान देश हैं,

हर बहस का अंत मंदिर-मस्जिद से होता है।

मुद्दा कुछ भी हो — महंगाई, शिक्षा या बेरोजगारी,

नतीजा एक ही, “आस्था हमारी भारी!”


जाति की जड़ों में इतनी खाद पड़ी है,

कि विकास का पौधा वहीं सकपका रहा है।

आरक्षण में रिश्ते टूटते हैं,

और जाति सम्मेलन में नेता फूलते हैं।


गरीब किसान अब मीम बन गया है,

और धर्मगुरु “ब्रांड एंबेसडर।” 

संविधान किताब में है,

धरातल पर बस “वोटबैंक” है।


नारा वही पुराना — “सबका साथ, सबका विकास”,

पर असल में “अपनों का साथ, बाकी का त्रास।”

कृषि में हम खेत जोतते हैं,

पर राजनीति में दिल।

और दोनों जगह,

लाभ वही उठाता है — जो “कुर्सी” हथियाता है। 🌾🗳️



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सीटों की सौदेबाज़ी और कविताई

 विजय शंकर पांडेय 


बिहार की राजनीति में अब सीट शेयरिंग नहीं, कविता शेयरिंग चल रही है। जीतन राम मांझी ने सीटों की माँग भी ऐसी की मानो राजनीति नहीं, कवि सम्मेलन हो। “हो न्याय अगर तो आधा दो…” — अब लोगों को समझ नहीं आ रहा कि ये सीट की डिमांड है या साहित्य अकादमी अवॉर्ड के लिए आवेदन।



मांझी बोले — “दे दो 15 ग्राम…” सुनकर चिराग पासवान भड़क गए, बोले “हम तो किलो में विकास मांग रहे थे, आप तो ग्राम में टिकट बाँट रहे हैं!” चिराग ने तुरंत सोशल मीडिया पर अपना डायलॉग फेंक दिया — “जुर्म करो मत, जुर्म सहो मत।” अब जनता सोच में है कि ये चुनावी घोषणा है या नई वेब सीरीज़ का प्रमोशन।


पार्टी ऑफिस में अब गणित नहीं, कविता पाठ चल रहा है। कोई कह रहा “तुम 10 लो, हम 15 लेंगे”, तो कोई बोल रहा “सीटें नहीं, भावनाएँ बाँटनी चाहिए।”


बिहार की राजनीति का हाल यह है कि यहाँ गठबंधन बनने से पहले पोएट्री राइटिंग वर्कशॉप करानी पड़ेगी। 


अगली बार शायद घोषणापत्र भी छंद में आए —

“वोट दो हमें दिल खोल के,

वरना सत्ता जाएगी बोल के!”


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जहां शांति दिखती नहीं, पर तालियां बहुत बजती हैं!😎

 विजय शंकर पांडेय 





आप चाहें तो इसे यूं भी कह सकते हैं कि नोबेल शांति पुरस्कार अब “ग्लोबल कॉमेडी शो” बन चुका है — जहां शांति नहीं, उसकी पीआर स्ट्रेटजी बिकती है। शुरू से ही यह तमाशा रहा है - 1906 में थियोडोर रूज़वेल्ट को मिला, क्योंकि उन्होंने युद्ध “बंद” रुकवाया, पर पहले “चालू” तो वही करवाते थे! वे कहा करते थे, “मैं शांति से प्यार करता हूं, पर डंडा हमेशा साथ रखता हूं।” अर्थात शांति के नाम पर साम्राज्यवाद का जश्न था।


फिर 1973 में आए हेनरी किसिंजर — वियतनाम में “शांति स्थापित” की, और अगले दिन बम बरस गए। पुरस्कार मिलते ही युद्ध ऐसा लौटा जैसे छुट्टी खत्म होते ही बॉस ऑफिस में। किसिंजर बोले, “मैं शांति का ब्रोकर हूं!” हां, मगर कमीशन गोली-बम में लेते थे। सह-विजेता ले दुक थो ने तो पुरस्कार ही लौटा दिया, बोले—"शांति कहां आई?" अर्थात पुरस्कार मिला तो युद्ध बढ़ा, जैसे शुभकामनाओं का कार्ड भेजकर बम गिराना।


1994 में तीन-तीन लोगों को मिला — यासिर अराफात, शिमोन पेरेस और इत्जाक राबिन को ओस्लो समझौते के लिए। तीनों ने शांति का कॉन्ट्रैक्ट साइन किया, फिर गारंटी कार्ड खो गया। राबिन मारे गए, अराफात नाराज़, और पेरेस कन्फ्यूज़ — “भाई, अब ट्रॉफी कौन रखे?” जाहिर है शांति का कॉन्ट्रैक्ट साइन किया, लेकिन हनीमून ही कैंसल हो गया।


बराक ओबामा को 2009 में बस पद संभालते ही उम्मीदों पर दे दिया — “आप अच्छे लगते हैं, लीजिए अवॉर्ड।” ओबामा ने स्वीकार भाषण में खुद कहा, "यह विडंबना है।" फिर ड्रोन चले, लोग भागे, अफगानिस्तान युद्ध लंबा खींचा, शांति मुस्कुरा कर गायब हो गई। सही कहा, जैसे शाकाहारी को बर्गर का अवॉर्ड देना। 




और अब 2025 की नायिका — मारिया कोरीना मचाडो! लोकतंत्र के लिए लड़ीं, इसलिए मिला। मचाडो ने ट्रंप को समर्पित कर दिया अपना नोबेल शांति पुरस्कार। मगर 76 प्रतिशत अमेरिकियों का भी कहना है कि ट्रम्प नोबेल शांति पुरस्कार के हकदार नहीं हैं। अधिकांश अमेरिकियों का यह भी कहना है कि पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा 2009 में यह पुरस्कार जीतने के हकदार नहीं थे।


अल्फ्रेड नोबेल खुद डायनामाइट के आविष्कारक थे—"मौत के व्यापारी" कहलाए, तो पुरस्कार बनाए। विडंबना का चरम था, युद्ध के पैसे से शांति खरीदना! नोबेल तो बस एक जोक है—हंसो, सोचो, और अगली बार मत उम्मीद करना।


शांति प्रेमी हम हिंदी वाले इसीलिए इसे चिमटे से भी छूना पसंद नहीं करते😄😄😄


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झगड़ा, ट्वीट और टोपी के रंग से ही राजनीति तय होती है

 विजय शंकर पांडेय 



ब्रिटेन में ईडी डेवी ने तो जैसे माइक पकड़कर सबको क्लास ही लगा दी—कहा कि फ़राज, मस्क और ट्रंप मिलकर ब्रिटेन को "ट्रंप का अमेरिका" बनाना चाहते हैं। अब ज़रा सोचिए, ट्रंप का अमेरिका! जहाँ झगड़ा, ट्वीट और टोपी के रंग से ही राजनीति तय होती है।



लेकिन असली सवाल यह है कि यूरोप और ऑस्ट्रेलिया में अचानक भारतीयों का विरोध क्यों बढ़ा? क्या वजह ये है कि वहाँ भारतीय सिर्फ़ "आईटी सपोर्ट" बनकर नहीं रुक रहे, बल्कि क्रिकेट, करी और चाय भी ले गए? स्थानीय लोग घबरा गए हैं—“पहले नौकरी, फिर दिमाग़, अब स्वाद भी ले गए!”


सोशल मीडिया पर हाल ये है कि मस्क प्लेटफ़ॉर्म बेचकर नफ़रत मुफ़्त में बाँट रहे हैं, फ़राज़ ‘ब्रेक्सिट’ का झंडा उठाए अब भी खोज रहे हैं कि आखिर बाहर निकले थे कहाँ, और ट्रंप तो बस हर जगह खुद को चुनावी प्रत्याशी मानकर भाषण दे रहे हैं।


भारतीयों के विरोध का लॉजिक वही है जो पुराने फ़िल्मी विलेन का होता था—“यहाँ का पानी पी लिया, तो यहाँ की रोटी क्यों नहीं खाओगे?” यानी भारतीयों से दिक़्क़त ये नहीं कि वे आए, बल्कि ये कि वहाँ रहकर भी ‘माँ के हाथ का अचार’ और IPL नहीं छोड़ते।


यूरोप-ऑस्ट्रेलिया वालों को समझना होगा—भारतीय जहाँ जाते हैं, वहाँ सिर्फ़ नौकरी नहीं, पूरा "मिनी-भारत" खोल देते हैं। और यही असली डर है—कि अगला प्रधानमंत्री शायद चाय की दुकान से ही चुन लिया जाए!