लखनऊ अउर बनारस में का फरक हौ गुरु?

 विजय शंकर पांडेय 



एक जने पूछे कि लखनऊ अउर बनारस में का फरक हौ गुरु?

लखनऊ में नवाबी ठसक है.... बनारस ठसक में नवाब है.... लखनऊ ज्यादा इनपुट अर्थात संसाधन में भी कम आउटपुट देता है..... जबकि बनारस बिंदास बेलौस अपनी जिंदगी जीता है... उसके लिए मोदी की हर हरकत करिश्मा है..... तो राहुल भी बड़ मनई हैं... अखिलेश में उसे कहीं न कहीं अपनापन झलकता है... यहां पान और चाय वाला भी लोटा भर पानी थमाते हुए कहता है पहिले ठंडाइल गुरु.... लखनऊ में बिना खरीदे पानी देने का तो सवाल ही नहीं पैदा होता... यहां चाय-पान वाले की कुर्सी, तख्त, बेंच कब्जिया कर आप घंटों बतकुचन कर सकते हैं.... पिछले दिनों हम और बड़े भाई केडीएन राय जी विश्वनाथ मंदिर से गंगा तक (दशाश्वमेध घाट) जाने वाली एक सड़क पर बच बचा कर निकलना चाहे तो एक परिचित दुकानदार ने पूछ ही लिया का गलती हो गइल केडीएन भइया?..... फिर उसकी दुकान पर बैठकर चाय की चुस्की लेनी पड़ी.... लखनऊ में चाय पान के तत्काल बाद आपको दूसरे कस्टमर के लिए जगह खाली करनी पड़ेगी.... मोहता तो मुझे गंगा अर्थात हुगली इस पार और उस पार वाला बृहत्तर कलकत्ता भी है, एक वजह जन्मभूमि होने के चलते भी हो सकती है... मगर इसमें कोई शक नहीं कि दिल्ली के मुकाबले आज भी वह कहीं ज्यादा परंपराओं से वास्ता रखता है.... 1989 में पहली बार दिल्ली जाना हुआ था.... उसके बाद कई बार आना जाना हुआ..... मगर उसकी तासीर में मुझे कभी अपनापा नहीं झलका.... एक तो लट्ठमार बातचीत और आचार व्यवहार....










आज बनारसी भी बजट और बही खाता के बीच के फासले को समझने में दिन गुजार दिए..... वह भी पूरी महफिल जमाकर.... बार बार प्रतिक्रिया पूछे जाने पर एक जने ने कहा – बुझात हौ.... बही खाता तोहरहू समझ में ना आवत हौ गुरु... हमरी खोपड़िया के ऊपरे से सब निकल जात हौ... मोदी के जहाजिया मतिन.... काहे? .... एक त सूरज वइसही दिन भर बमचक करत हउवन...... बुझात हौ काल्ह जरूर बरखा होई.... तब दिमाग तर होई..... 

काहे 'उ' भद्राह हवन का?


ऊ दांत चियार के खिसक लिहिन....




5 जुलाई 2019

बंधन मुक्त हुए निष्काम कर्मयोगी त्रिलोकी नाथ सिनहा

जीवटता, कर्मठता, रचनात्मकता और सजगता के अप्रतिम उदाहरण


विजय शंकर पांडेय


जयंती 10 अगस्त 1931 पुण्य तिथि 20 जून 2025

अब उनके हाथ कांपने लगे थे। वजह भी वाजिब थी। उनकी उम्र 74-75 साल हो चुकी थी। मगर कर्मयोगी भला निष्कर्म रहना कैसे पसंद करता। कहा ही जाता है कि कुछ कर गुजरने का जज्बा हो तो कामयाबी हमेशा कदम चूमती है। फिर जुट गए एक नए अभियान पर। कलम उठाई। रोज आठ से दस घंटे लिखने के दृढ़ संकल्प के साथ। और अपने जीवन भर की थाती, अनुभवों, वन नायकों और सामाजिक सरोकारों के लिए खुद को उत्सर्ग कर देने वाले मनीषियों को कागजों पर जीवंत ही नहीं, अमर कर दिया। उनकी 15 पुस्तकें इस बात को प्रमाणित करने के लिए पर्याप्त हैं। यह सिर्फ श्रमसाध्य कार्य ही नहीं था, बल्कि उनकी जीवटता, कर्मठता, रचनात्मकता और समय के प्रति उनकी सजगता का अप्रतिम उदाहरण भी है। जी हां, यहां मैं चर्चा कर रहा हूं, त्रैलोक्य से प्यारी काशी के सगे कर्मयोगी त्रिलोकी नाथ सिनहा की। हाल ही में उनका निधन हो गया। इस वजह से भी उनकी चर्चा जरूरी है, क्योंकि उन्होंने अपना पूरा जीवन वनवासियों के उत्थान और सेवा के लिए समर्पित कर दिया। 



राम काजु कीन्हें बिनु मोहि कहां विश्राम

एक वजह और भी है। राम चरित मानस के सुंदरकांड के मुताबिक ‘हनुमान तेहि परसा कर पुनि कीन्ह प्रनाम, राम काजु कीन्हें बिनु मोहि कहां विश्राम’। जैसे हनुमान जी उस वक्त अपने लक्ष्य को साधने के लिए राम काजु में जुटे थे, वैसे ही त्रिलोकी नाथ सिनहा ने भी राम काजु के लिए ही अपने जीवन को समर्पित कर दिया। जी हां, यह बिल्कुल सोलह आने सही बात है। 2011 की जनगणना के अनुसार भारत दुनिया का सबसे बडा आदिवासी बहुल देश है। और दुनिया में सबसे पहले प्रभु राम ने ही आदिवासियों और दलितों को संगठित करने और मुख्य धारा से जोड़ने का बीड़ा उठाया था। राम ने पहले आदिवासियों को बाणासुर के अत्याचार से मुक्त करवाया। इसके बाद 10 वर्षों तक आदिवासियों के बीच ही रहे। छत्तीसगढ, ओडिशा और आंध्र प्रदेश जैसे राज्यों के हिस्से ही राम के दंडकारण्य थे। निषाद, वानर, मतंग, किरात और रीछ ही तब के दलित या आदिवासी समाज के लोग थे। भील समूह के बीच पला बढ़ा डाकू रत्नाकर आगे चलकर रामायण के रचयिता महर्षि वाल्मिकी बने। राम ने ही वन में उनके साथ रहकर उन्हें धनुष वाण चलाना सिखाया। गुफाओं के उपयोग करना सिखाया और उनके मन में परिवार की धारणा को विकसित किया। 



एक आदर्श शिक्षक की हैसियत से सभ्यता और संस्कृति की अलख जगाई

प्रभु राम के इसी महान उद्देश्य को सफल बनाने के लिए त्रिलोकी नाथ सिनहा ने भी अपना जीवन उत्सर्ग कर दिया। मात्र 20 साल की छोटी सी उम्र में राष्ट्र कार्य के लिए उन्होंने घर छोड़ दिया। साल 1948 और 1975 में वे जेल भी गए। मगर अनगिनत विद्यार्थियों के बीच उन्होंने एक आदर्श शिक्षक की हैसियत से सभ्यता और संस्कृति की अलख जगाई। अव्वल तो पूर्वांचल वैसे भी एक नितांत पिछड़ा हुआ अंचल है, मगर उन्होंने उसके सबसे पिछड़े अव्यवस्थित और सुदूर वनवासी क्षेत्र को अपनी कर्मभूमि बनाया। महानगर काशी का ठाट बाट छोड़कर वे साल 1971 में तब के मिर्जापुर और अब के सोनभद्र जिले के घोरावल के लिए दृढ़संकल्प के साथ प्रस्थान किए। और वहां पहुंच कर उन्होंने अपना शत प्रतिशत वनवासी समाज को समर्पित कर दिया। 


वनवासी लोगों के बीच रह कर उन्होंने उनका भविष्य संवारा

बतौर एक शिक्षक उन्होंने असंख्य विद्यार्थियों को जीवन पथ पर अग्रसर होने के लिए प्रेरित ही नहीं किया, राष्ट्र निर्माण में उनकी भूमिका को भी रेखांकित किया। उन्हें संस्कारवान व शिक्षित बनाने के लिए, समाज की मुख्य धारा में शामिल करवाने के लिए, इस दुरूह कार्य को संपन्न करवाने के लिए उन्होंने वनवासी कल्याण केंद्र, घोरावल की स्थापना की। इस नितांत पिछड़े इलाके को उन्होंने पैदल या साइकिल से छान मारा। वनवासी लोगों के बीच रह कर उन्होंने उनका भविष्य संवारा। आज यह केंद्र इस निर्धनतम वनवासी समाज के लिए एक आधार स्तम्भ सरीखा है। गौरतलब यह भी है कि यह केंद्र किसी सरकारी सहायता का मोहताज भी नहीं है। इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए उन्होंने केंद्र की योजनाओं के लिए समाज के ही सामर्थ्यवान व्यक्तियों को जोड़ा। यह त्रिलोकी नाथ जी के सांगठनिक नेतृत्व क्षमता, कठोर परिश्रम और द्ढ़ संकल्प का एक जीता जागता नमूना मात्र है। 


निष्काम कर्मयोगी की तरह अपने कर्तव्य पथ से डिगे नहीं


साल 1994 में बीएड विभाग के विभागाध्यक्ष पद से सेवा निवृत्त होने के बाद उन्होंने चंदौली के नक्सल प्रभावित क्षेत्र नौगढ़ में जाकर वनवासी समाज को मुख्य धारा में लाने के लिए महर्षि वाल्मीकि सेवा संस्थान के रूप में एक बेहद प्रभावी और भव्य वनवासी केंद्र का निर्माण करवाया। इन्हीं वनवासी प्रकल्पों से गढ़े गए हजारों वनवासी बच्चे आज विभिन्न क्षेत्रों में राष्ट्रनिर्माण में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर रहे है। इनमें कई विधायक, सांसद और सामाजिक कार्यकर्ता भी हैं, तो कई शिक्षक, पुलिसकर्मी और अन्य सरकारी महकमों में नियुक्त हैं। मगर त्रिलोकी नाथ जी आज भी निष्काम कर्मयोगी की तरह अपने कर्तव्य पथ से डिगे नहीं है।


अपने समय, सामर्थ्य, अर्थ और कठोर श्रम की आहुति दी

लगभग छह महीने पहले एक अखबार में भोपाल से एक खबर छपी थी। उस खबर में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के मुखिया मोहन भागवत ने स्वयं सेवकों से कई सवाल पूछे थे। पूछा था कि आप ही बता दें कि अब तक आपने कितना काम किया? सिर्फ संगठन में राज्य स्तरीय या अखिल भारतीय पद हासिल करने से कुछ नहीं होता, स्वयंसेवक बनकर काम करना और समाज में स्थान बनाना पड़ता है। अगर गौर कीजिए तो मोहन भागवत के इस फार्मूले पर सोलह आना खरा उतरने के लिए त्रिलोकी नाथ जी से बेहतर उदाहरण शायद ही मिले। उन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन एक सामान्य कार्यकर्त्ता की हैसियत से बिताया। वनवासी बंधुओं के उत्थान और उनके जीवन निर्माण के महान यज्ञ में अपने समय, सामर्थ्य, अर्थ और कठोर श्रम की आहुति दी। असंख्य लोगों के जीवन में राष्ट्र भक्ति, दायित्व बोध, कर्मठता और अनुशासन का निर्माण किया। 


बनारस की गलियों में छिपते छुपाते चेतगंज थाने में गिरफ्तार कर लिए गए

12 भाई बहनों में त्रिलोकी नाथ जी आठवें और भाइयों में चौथे स्थान पर थे। पिता स्टेशन मास्टर थे। उनके सभी भाई और बहनोई सरकारी विभागों में उच्च पदों पर थे। अंग्रेजों के शासन काल में संघ जैसे सामाजिक और सांस्कृतिक संगठन से जुड़ने का मतलब परिजनों से विद्रोह माना जाता था। साल 1948 में प्रतिबंध लगा था तो वे परिजनों को चकमा दे बनारस की गलियों में छिपते छुपाते चेतगंज थाने में गिरफ्तार कर लिए गए। उन्होंने बताया कि इसके बाद उन्हें असह्य यातनाएं दी गईं। बर्फ की सिल्ली पर लिटा कर पूछताछ की गई। साल 1975 में मीसा के तहत बंदी रहे। 


अपने इस उत्सर्ग के एवज में कुछ पाने की कभी लालसा नहीं रही


उनके इन्हीं वनवासी प्रकल्पों में गढ़ी गईं प्रतिभाएं आज शिक्षक, पुलिसकर्मी, सरकारी कर्मचारी / अधिकारी, विधायक, सांसद और सामाजिक कार्यकर्ता बन कर समाज को एक नया आयाम दे रही हैं। इन प्रकल्पों के कण कण में त्रिलोकी नाथ सिनहा की आत्मा बसती है। आज की पीढ़ी को यह जानना और समझना चाहिए कि जिस सामाजिक ताने बाने ने उन्हें मुकाम तक पहुंचाया है, उसके पीछे किसी निष्काम कर्मयोगी का अथक परिश्रम, निस्वार्थ सेवा और त्याग रहा है। गौर करने वाली बात तो यह भी है कि चुनाव आते ही वंचित तबके के घर भोजन करने और फोटो खिंचवाने की होड़ लग जाती है। मीडिया में उसका जमकर प्रचार प्रसार किया जाता है। मगर जिसने इस तबके को सम्मान के रोटी कमाने ही नहीं, कामयाबी का शिखर चुमने लायक बनाया, उसे आजीवन पब्लिसिटी से परहेज रहा। वजह साफ है। एक निष्काम कर्मयोगी को अपने इस उत्सर्ग के एवज में कुछ पाने की कभी लालसा नहीं रही। 


उनकी रचनात्मक सांगठनिक क्षमता के भी कई उदाहरण है

कानपुर के श्री मुनि हिन्दू इंटर कॉलेज के संस्थापक प्रधानाचार्य थे त्रिलोकी नाथ सिनहा। भाऊराव देवरस के एक आदेश पर उन्होंने 1959 में नौकरी छोड़ दी। मध्य प्रदेश के सुदूर वन क्षेत्र बैतूल में वे सपत्नीक पहुंचे। और भारत भारती आवासीय विद्यालय की स्थापना की। तब बैतूल के हालात ऐसे थे कि विद्यालय परिसर में जंगली हिंसक पशुओं की आवाजाही आम बात थी। अमूमन प्रबंधकों और आचार्यों की हिम्मत जवाब दे जाती। मगर लक्ष्य के प्रति समर्पित सिपाही की तरह त्रिलोकी नाथ जी मोर्चे पर डंटे रहे। बलिया के सिकंदरपुर स्थित गांधी इंटर कॉलेज में भी उन्होंने बतौर शिक्षक अपनी सेवाएं दी। उन्हीं की बदौलत वहां शाखाएं लगनी शुरू हुईं। बहुमुखी प्रतिभा संपन्न त्रिलोकी नाथ सिनहा न सिर्फ कुशल वक्ता थे, बल्कि उनकी रचनात्मक सांगठनिक क्षमता के भी कई उदाहरण है। साल 1979 में प्रयाग के द्वितीय विश्व हिन्दू सम्मलेन, 1990-91 में लखनऊ में रामजन्म भूमि के लिए आयोजित विशाल जन सम्मेलन तथा वर्ष 1983 में पोर्ट ब्लेयर, अंडमान द्वीप समूह में तीन माह का प्रवास करते हुए विराट हिंदू सम्मलेन का उन्होंने सफल संचालन किया। मगर योगी होने की पहली शर्त है कि आप वियोगी हो, जो इस शर्त को पूरा नहीं करता वह योगी हो ही नहीं सकता। त्रिलोकी नाथ जी पूरे 24 कैरेट निष्काम कर्मयोगी थे।

बच्चा चाहिए या बीएमडब्ल्यू?

बच्चा पैदा करना अब स्टेटस सिंबल है

विजय शंकर पांडेय 

एक दौर था जब बच्चे ज्वाइंट फैमिली में खुद ही पल जाते थे—मिट्टी खा के इम्यूनिटी बना लेते थे, आम के पेड़ पर चढ़कर जिम का खर्च बचा लेते थे और रबर की चप्पल से तीन चार भाई-बहन पूरे बचपन में गुजारा कर लेते थे। मगर आज? बच्चे पालना नहीं, इन्वेस्टमेंट प्लान बन गया है! 




बेंगलुरु की स्टार्टअप फाउंडर मीनल गोयल ने अपने लिंक्डइन पोस्ट में बताया कि एक बच्चे को बड़ा करने में लगभग 45 लाख रुपये लगते हैं। भाई, अगर मेरे पास 45 लाख रुपये हो तो क्यों न मैं एक स्टार्टअप खोल लूं, इंवेस्टर ढूंढ लूं, और फेल होने के बाद भी गोवा में छुट्टी भी मना लूं! यानी अब "बच्चे दो, पर इतने महंगे ना हो" का नारा देना पड़ेगा। मिडिल क्लास कपल अब शादी से पहले सिर्फ कुंडली नहीं, म्यूचुअल फंड पोर्टफोलियो भी मिलाते हैं—"तुम्हारे पास LIC है? नहीं? फिर हम बच्चे नहीं कर सकते।"

आजकल बच्चे को दूध नहीं, बादाम मिल्क चाहिए। स्कूल नहीं, IB बोर्ड चाहिए। छुट्टी में गांव नहीं, यूरोप टूर चाहिए। 

और अगर आपने जन्मदिन में सिर्फ समोसे खिला दिए, तो बच्चा खुद ही चाइल्ड हेल्पलाइन डायल कर देगा। 

कल्पना कीजिए, "डायपर—2 लाख, स्कूल फीस—15 लाख, ट्यूशन—10 लाख, और बाकी iPad, PlayStation, और बच्चे की इंस्टा रील्स के लिए फोटोग्राफर!" मां-बाप अब यह तय नहीं करते कि बच्चे को डॉक्टर बनाना है या इंजीनियर। पहले ये तय होता है कि EMI पहले भरें या प्ले स्कूल की फीस। और दादी-नानी की कहानियों की जगह अब ChatGPT से “बेडटाइम स्टोरी” सुनाई जाती है।

पहले लोग पूछते थे, "शादी कब कर रहे हो?" अब सवाल है, "बच्चा कब पैदा कर रहे हो, और बजट कितना है?" मिडिल क्लास माता-पिता अब क्राउडफंडिंग के लिए लिंक्डइन पर पोस्ट डाल रहे हैं: "हमारे बच्चे के डायपर के लिए फंड करें, रिटर्न में आपको उसकी पहली रील में क्रेडिट देंगे!" और फिर स्कूल! हर स्कूल का प्रॉस्पेक्टस अब किसी फाइव-स्टार होटल के ब्रोशर जैसा है—'एयर-कंडीशन्ड क्लासरूम, आर्गेनिक मिड-डे मील, और मंगल ग्रह की ट्रिप!' फीस इतनी कि मम्मी-पापा को किडनी बेचने की नौबत आ जाए। 


तो दोस्तों, अगर बच्चा चाहिए, तो पहले स्टार्टअप बेचो, IPO लाओ, या फिर अमीर सास-ससुर ढूंढो। सच कहें तो अब बच्चा पालना उतना ही महंगा हो गया है, जितना बेंगलुरु में 1BHK किराए पर लेना। और इसी कारण मिडिल क्लास कपल्स बच्चे की जगह अब पालतू डॉगी पाल रहे हैं—कम बोलता है, स्कूल नहीं जाता और उसकी शादी की चिंता नहीं करनी पड़ती और इंस्टाग्राम लाइक्स भी ज्यादा! 


आखिरकार, आज का सवाल ये है, “बच्चा चाहिए या बीएमडब्ल्यू?” जवाब आसान नहीं है, पर EMI दोनों की ही भारी है!

स्क्रिप्टेड ड्रामा सरीखा है ट्रंप का लोकतंत्र

 

विजय शंकर पांडेय 

ओबामा बोले, “अमेरिका लोकतंत्र से भटक रहा है।” और जनता बोली, “हम तो कब से जीपीएस ऑन किए घूम रहे हैं, लेकिन ये लोकतंत्र वाला रास्ता दिख ही ही नहीं रहा!” 


अब देखिए, ट्रम्प जी देश को जिस अंदाज में चला रहे हैं, वो लोकतंत्र नहीं, रियलिटी शोक्रेसी है। हर प्रेस कॉन्फ्रेंस ऐसे करते हैं जैसे "एप्रेंटिस" का नया सीज़न लॉन्च हो रहा हो—"यू आर फायरड!" से लेकर "चाइना इज चीटिंग!" तक, सब कुछ स्क्रिप्टेड ड्रामा लगता है। 



ओबामा तो सादा सूट पहनकर भाषण देते थे, और ट्रम्प? उनके सूट से ज़्यादा उनके ट्वीट्स में धार है। इतना ट्वीट करते हैं कि ट्विटर को भी एलन मस्क से पहले डर लगने लगा था—“सर, बंद कर दें क्या सर्वर? आपकी लोकतांत्रिक आग हमें जला रही है।” अब ट्रेड वॉर को ही देख लीजिए। ट्रम्प ने चाइना से व्यापार युद्ध शुरू किया, लेकिन नुकसान हुआ अमेरिकी किसानों को। 


ट्रम्प साहब ने सोचा, "चीन, मेक्सिको, कनाडा—सबको टैरिफ की मार! अमेरिका फर्स्ट, बाकी सब थर्स्ट!" अब ये टैरिफ की मार इतनी जोरदार थी कि अमेरिका के अपने ही दुकानदार चिल्लाने लगे, "भाई, ये सामान महंगा क्यों हो गया?" लेकिन ट्रम्प साहब का जवाब? "मेक अमेरिका ग्रेट अगेन!" अरे भाई, ग्रेट तो ठीक, पर वॉलमार्ट में सामान का दाम सुनकर जनता का दिल पहले ही "ग्रेट डिप्रेशन" में चला गया।  


मतलब, उन्होंने चीन को मुक्का मारा, और अमेरिका की नाक टूट गई! और अब गरिमा की बात करें तो... गरिमा शायद वो पड़ोसी है, जिसे ट्रम्प सरकार ने व्हाइट हाउस से बाहर निकाल दिया है। कोई पूछे, “व्हाइट हाउस में कौन रहता है?” जवाब मिलेगा, “गरिमा नहीं।” 


अमेरिकन डेमोक्रेसी अब लोकतंत्र नहीं, लोकतमाशा बन चुकी है। कभी एफबीआई पर आरोप, कभी मीडिया को “फेक न्यूज” कहना—हर बार सच्चाई को उतना ही मरोड़ा जाता है, जितना आटा गूथने वाली मशीन में। 


अब ट्रम्प साहब ने तो ट्विटर (अब X) को ही अपना व्हाइट हाउस बना लिया। एक ट्वीट, और पूरी दुनिया में हड़कंप। "चीन, तैयार हो जाओ!"—और अगले दिन अमेरिकी किसान सोच रहे हैं, "हमारी सोयाबीन का क्या होगा?" ट्रेड वॉर की ये जंग ऐसी है कि दोनों तरफ के सिपाही (यानी आम जनता) ही पिस रही हैं। 


ओबामा की चिंता जायज है। आखिर उन्होंने सालों तक देश को संभाला, और अब देखते हैं कि उसी देश में मीम्स और मेक अमेरिका ग्रेट अगेन की टोपियों से ही नीति तय हो रही है। अंत में लोकतंत्र खड़ा सोच रहा है, “मैं तो जनता की, जनता के लिए, जनता द्वारा थी... ये क्या हो गया? अब तो मैं रियलिटी शो की, रेटिंग के लिए, ट्विटर पोल द्वारा हो गया हूं!” सच कहें तो अब अमेरिका को संविधान नहीं, एक अच्छा स्क्रिप्ट राइटर चाहिए। और शायद थोड़ा सा ओबामा ब्रांड "लोकतांत्रिक मल्टीविटामिन" भी। ट्रम्प ब्रांड च्यवनप्राश से तो इम्युनिटी जा रही है!