क्राइम, करप्शन और चंपारण

 विजय शंकर पांडेय 




बिहार की सियासत का हाल आजकल ऐसा है जैसे क्लास में नया टीचर आया हो और सारे बच्चे होमवर्क पूरा न हो पाने की टेंशन में हों। फर्क बस इतना है कि यहाँ “पीके सर” होमवर्क नहीं, नेताओं की पोल पट्टी चेक कर रहे हैं। नेताओं की हालत देखकर लगता है किसी ने अचानक फायर अलार्म बजा दिया हो—सब भाग रहे हैं, लेकिन बाहर निकलने का गेट भी उन्हीं के कब्ज़े में है। 



प्रशांत किशोर का नाम सुनते ही नेताओं की धड़कनें वैसे ही बढ़ जाती हैं, जैसे बिजली का बिल देखकर आम आदमी की। बिहार का हाल ये है कि भ्रष्टाचार की पोल खुलने से ज़्यादा नेताओं को डर है कि पोल के अंदर कौन-कौन सी वायरिंग निकलेगी! हर नेता का सीवी इतनी रंगीन है कि अगर सचमुच पीके सब खोल दें तो बिहार चुनाव से पहले Netflix की डॉक्यूमेंट्री लॉन्च हो जाएगी – “क्राइम, करप्शन और चंपारण”। उनके सामने नेता जी उतने ही कमजोर पड़ जाते हैं, जितना एक मोबाइल बिना नेटवर्क के। 


मीडिया वाले तो आराम से सोफ़े पर बैठे पॉपकॉर्न खा रहे हैं, क्योंकि उनका काम तो अब विज्ञापन के जरिए हो रहा है—सच्चाई दिखाने के लिए टाइम नहीं है! बेचारे मजबूर भी हैं। मालिकान का तो हाल ये है कि “चुप रहो वरना विज्ञापन बंद हो जाएगा” वाली बीमारी चिपकी है। लेकिन पीके को विज्ञापन की परवाह नहीं, उन्हें एक्सपेरिमेंट करना है। पीके अपने मिशन पर हैं, और नेताओं को लग रहा है जैसे कोई सच का सिटी स्कैन करवा दिया हो। हर जगह शक होने लगा है—"कहीं पीके मेरी फाइल तक न पहुँच जाएं!" 



अब देखना ये है कि बिहार के नेताओं की यह कपकपाती दौड़ कहाँ जाकर रुकेगी। राजनीति का यह खेल है, यहाँ हर कोई खिलाड़ी है, लेकिन गुरुजी—रेफरी तो अभी भी पीके ही दिख रहे हैं। नेता लोग अब दिन में पूजा और रात में मन्नत मांग रहे हैं – “हे भगवान, पीके हमें पोल खोलने से बचा लो, हम अगली बार जनता को धोखा थोड़ा कम देंगे।” पर जनता भी समझ रही है – “भइया, नेता जी पसीने में हैं, मतलब कहीं तो गड़बड़ है!”

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

टिप्पणी: केवल इस ब्लॉग का सदस्य टिप्पणी भेज सकता है.