झगड़ा, ट्वीट और टोपी के रंग से ही राजनीति तय होती है

 विजय शंकर पांडेय 



ब्रिटेन में ईडी डेवी ने तो जैसे माइक पकड़कर सबको क्लास ही लगा दी—कहा कि फ़राज, मस्क और ट्रंप मिलकर ब्रिटेन को "ट्रंप का अमेरिका" बनाना चाहते हैं। अब ज़रा सोचिए, ट्रंप का अमेरिका! जहाँ झगड़ा, ट्वीट और टोपी के रंग से ही राजनीति तय होती है।



लेकिन असली सवाल यह है कि यूरोप और ऑस्ट्रेलिया में अचानक भारतीयों का विरोध क्यों बढ़ा? क्या वजह ये है कि वहाँ भारतीय सिर्फ़ "आईटी सपोर्ट" बनकर नहीं रुक रहे, बल्कि क्रिकेट, करी और चाय भी ले गए? स्थानीय लोग घबरा गए हैं—“पहले नौकरी, फिर दिमाग़, अब स्वाद भी ले गए!”


सोशल मीडिया पर हाल ये है कि मस्क प्लेटफ़ॉर्म बेचकर नफ़रत मुफ़्त में बाँट रहे हैं, फ़राज़ ‘ब्रेक्सिट’ का झंडा उठाए अब भी खोज रहे हैं कि आखिर बाहर निकले थे कहाँ, और ट्रंप तो बस हर जगह खुद को चुनावी प्रत्याशी मानकर भाषण दे रहे हैं।


भारतीयों के विरोध का लॉजिक वही है जो पुराने फ़िल्मी विलेन का होता था—“यहाँ का पानी पी लिया, तो यहाँ की रोटी क्यों नहीं खाओगे?” यानी भारतीयों से दिक़्क़त ये नहीं कि वे आए, बल्कि ये कि वहाँ रहकर भी ‘माँ के हाथ का अचार’ और IPL नहीं छोड़ते।


यूरोप-ऑस्ट्रेलिया वालों को समझना होगा—भारतीय जहाँ जाते हैं, वहाँ सिर्फ़ नौकरी नहीं, पूरा "मिनी-भारत" खोल देते हैं। और यही असली डर है—कि अगला प्रधानमंत्री शायद चाय की दुकान से ही चुन लिया जाए!

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