लगातार लुढ़कने के अलावा कोई चारा नहीं

 विजय शंकर पांडेय 

शनिवार (15 सितंबर) को #प्रभाकर_श्रोत्रिय जी की पुण्यतिथि थी। उनके जैसे दिग्गज पर लिखना अपने वश की बात नहीं। अब से पहले दो एक बार कोशिश किया, सफलता नहीं मिली। मगर... उन्हीं से उधार लिए गए शब्दों से शुरुआत करता हूं, 'यादें बड़ी पागल होती हैं, बुलाओ तो आएंगी नहीं, नखरें करेंगी हजार। न बुलाओ तो सुनामी की तरह आकर प्रलय मचा देंगी।' 

वे भारतीय भाषा परिषद के निदेशक और वागर्थ के संपादक की हैसियत से कलकत्ता पहुंचते हैं। वहीं से मुलाकात का शुरू हुआ सिलसिला गाजियाबाद के जनसत्ता सहकारी आवास तक जारी रहा। अमर उजाला से जुड़ने के बाद उनसे पहले कलकत्ता मैं छोड़ा, मगर उनका बड़प्पन यह था कि वे जब भी मिलते उतनी ही आत्मीयता व स्नेह के साथ। मैं शहर बदलते बदलते बनारस से कानपुर पहुंचा तो वे भारतीय ज्ञानपीठ के निदेशक का दायित्व संभाल चुके थे। नियमित तौर पर नया ज्ञानोदय मेरे बदलते पते पर पहुंचता रहा। तथाकथित प्रोफेशनलिज्म, पत्रकारिता और बेगारी की अंधी दौड़ में शामिल होने के चलते सलीके से लिखना या पढ़ना तो मैं भूल ही गया, मगर वे जब भी मिले लिखने-पढ़ने के लिए उकसाते रहे।


मैं श्रोत्रिय जी की भांति 'परकाय प्रवेश' का माद्दा नहीं रखता। 2015 में आखिरी मुलाकात के दौरान उन्होंने अपनी किताब 'पृथ्वी क्रोध में है' भेंट की थी। लगभग घंटे भर की मुलाकात के दौरान नौकरी, कुशल क्षेम, परिवार व बच्चों के अलावा विभिन्न विषयों पर चर्चाएं भी हुईं। मगर कहीं न कहीं उनके चेहरे के भावों से जाहिर हो रहा था कि वे भी 'पृथ्वी' की ही भांति 'क्रोध' में है, मगर उतनी सहजता से उन्हें भांपना मुश्किल था। उन्हीं के शब्दों में सृष्टि अपार संयम और आवर्तन-प्रत्यावर्तन के विचित्र नियमन से जीवन की रक्षा और संचालन करती है। मानव निर्मित अविवेक से इसमें क्या कुछ घटित हो रहा है, यह देख कर दहशत होती है।

साहित्यकारों और पत्रकारों के लिए उनके मन में कहीं न कहीं एक नरम कोना सदैव सुरक्षित रहा। कभी मौका मिले तो आप उनका संस्मरण 'क्या वह परकाय प्रवेश था?' जरूर पढ़ें। उनकी यह टिप्पणी मशहूर लेखक शैलेश मटियानी जी पर केंद्रित है। उल्लेखनीय तथ्य यह है कि इस टिप्पणी में जिन घटनाओं का जिक्र है, उसका चश्मदीद श्रोत्रिय जी के संग मैं भी रहा। मगर उतने उम्दा अंदाज में परोसने की हैसियत मेरी नहीं है। इस प्रकरण से पहले मैं मटियानी जी को सिर्फ एक पाठक की हैसियत से जानता था। श्रोत्रिय जी की ही जुबानी मैं मटियानी जी के संघर्षों से रूबरू हुआ था। सचमुच मटियानी जी को धरती पर जन्म लेने की बहुत बड़ी कीमत अदा करनी पड़ी और उसे उनके खुद के सिवाय श्रोत्रिय जी ही बयान कर सकते थे।

चलते चलते श्रोत्रिय जी की ही एक टिप्पणी - गांधी तो चार आने की सेब को एक रुपये में बेचने वाले को जेल में डालने के पक्ष में थे, यहां एक रुपये को सौ रुपये में बदलने वाले पूंजीपतियों का बचाव किया जा रहा है। गांधी ने पश्चिम की भौतिकवादी सभ्यता को शैतानी सभ्यता यूं ही नहीं कहा था, उन्होंने उसके पतनकारी रुझान देख लिए थे। अब तो हम उसके ऐसे ढलान पर पहुंच चुके हैं, जहां से लगातार लुढ़कने के अलावा कोई चारा नहीं है और त्रासदी यह है कि उसे विकास का मार्ग कहना पड़ रहा है। #मीडिया_और_समाज

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