विजय शंकर पांडेय
नेपाल की राजनीति किसी पारिवारिक शादी की तरह है—जहां हर दो दिन में दूल्हा बदल जाता है और बारात फिर से सजानी पड़ती है। 14 साल में 17 सरकारें बदलना कोई साधारण बात नहीं। यह तो जैसे राजनीतिक टी-20 मैच हो गया है, बस फर्क इतना है कि यहां गेंद और बल्ले की जगह कुर्सी और चालबाजी चलती है।
केपी शर्मा ओली तो मानो पॉपकॉर्न बेचने वाले सिनेमाघर के मालिक हैं—चार बार आए, चार बार गए, और हर बार जनता से बोले, “इंटरवल के बाद कहानी और मजेदार होगी।” लेकिन जनता अब सोच रही है कि भाई, ये फिल्म खत्म कब होगी?
तुलना कीजिए: पाकिस्तान ने 10 साल में 5 पीएम बदले, ब्रिटेन ने भी 5, पर नेपाल तो उनसे कहीं आगे है। अमेरिका, जो हर चार साल में चुनाव कराता है, बस 3 राष्ट्रपति बदल पाया। श्रीलंका 4 पर अटक गया। फ्रांस वालों को तो गिनती करने में भी आलस है—सिर्फ 2 राष्ट्रपति। लेकिन नेपाल? यहाँ तो “प्रधानमंत्री ऑफ द ईयर” अवार्ड हर साल नए चेहरे को मिलना तय है।
राजनीति को यहां इतना डायनामिक बना दिया गया है कि विदेशी निवेशक सोचते हैं—“पैसा लगाएं या संडे का बुफे खाएं?”
युवाओं को लगने लगा है कि पढ़ाई-लिखाई से अच्छा है प्रधानमंत्री बनना, कम से कम नौकरी बदलने का रिस्क नहीं, क्योंकि पद तो हर हाल में खाली होना है।
काश, नेताओं ने भारतीय जीवन-दर्शन “संतोषम् परम् सुखम्” अपनाया होता। लेकिन यहां संतोष का मतलब है—“मेरे पास कुर्सी क्यों नहीं है?” और सुख का मतलब है—“दूसरे की कुर्सी गिर गई, वाह रे लोकतंत्र!”
नेपाल का लोकतंत्र अब उस बच्चे जैसा हो गया है, जो हर खिलौना तोड़ देता है और फिर रोते हुए नया मांगता है। जनता कह रही है—“हमें स्थिर सरकार चाहिए।” नेता जवाब दे रहे हैं—“स्थिर? माफ कीजिए, ये हमारा वादा नहीं, हमारा अपमान है।”
नतीजा यह है कि नेपाल की राजनीति दुनिया के सबसे मजेदार रियलिटी शो में बदल चुकी है। हर सीजन में नए चेहरे, नई चालें, नई कुर्सी। फर्क बस इतना है कि यहां ऑडियंस यानी जनता वोट डालती है, और फिर खुद ही अफसोस करती है।
लगता है, नेपाल को अब नए संविधान की नहीं, नए टीवी चैनल की ज़रूरत है—नाम रखिए “डेमोक्रेसी टाइम्स”, टैगलाइन: “कुर्सी गर्म है, बैठिए… जब तक बैठी रहे।”
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