विजय शंकर पांडेय
ट्रंप और टैरिफ का रिश्ता कुछ ऐसा है जैसे भारतीय घरों में चाय और शक्कर—एक के बिना दूसरा अधूरा। फर्क बस इतना है कि चाय पीने से पेट भरता है और टैरिफ लगाने से चुनावी भाषण। अब अमेरिकी संघीय सर्किट की अपीलीय अदालत ने साफ कह दिया कि "राष्ट्रपति साहब, आप अनिश्चितकालीन टैरिफ लगाकर दुनिया को टैक्स के चक्करों में नहीं घुमा सकते।"
ट्रंप भला चुप कहां बैठने वाले! फौरन ट्वीट मोड में आ गए—"यह फैसला कट्टरपंथी कम्युनिस्ट जजों का षड्यंत्र है।" मतलब, अगर कोर्ट उनकी बात माने तो राष्ट्रवाद की जीत, और अगर न माने तो वामपंथ का खेल। वाशिंगटन की राजनीति में तर्क हमेशा यही रहता है—"अगर मैं हारूं, तो साजिश; अगर मैं जीतूं, तो लोकतंत्र की ताकत।"
ट्रंप का दर्द समझा जा सकता है। टैरिफ उनके लिए सिर्फ टैक्स नहीं, चुनावी पोस्टर भी है। उन्होंने सोचा था कि चीन, भारत, मैक्सिको सब लाइन में लगकर "मेड इन यूएसए" का कीर्तन करेंगे। मगर अब हालत यह हो गई है कि विदेशी सामान तो महंगा हो ही गया, अमेरिकी दुकानदार भी कह रहे हैं—"साहब, अब ये मंहगी मंहगी चीजें कौन खरीदे?" जनता को लगता है कि ये टैरिफ देश के लिए कम और खुद ट्रंप की दीवार के लिए ज्यादा लगाए गए थे।
कोर्ट ने जब कहा कि "राष्ट्रपति को इतने व्यापक और अनिश्चितकालीन अधिकार नहीं दिए जा सकते," तो ट्रंप समर्थक टीवी पर बहस करने लगे—"क्या राष्ट्रपति से ज्यादा अधिकार अब न्यायाधीशों के पास होंगे?" मानो अमेरिका में राष्ट्रपति ही संविधान हो, बाकी संस्थाएं तो बस शोपीस।
सोचिए, ट्रंप ने अगर शादी-ब्याह में भी टैरिफ लगाने शुरू कर दिए तो? "जो दूल्हा विदेशी शेरवानी पहनेगा, उस पर 25% टैक्स।" "जो दुल्हन फ्रेंच मेकअप करेगी, उस पर 30% टैक्स।" और मेहमान अगर भारतीय मिठाई लाए तो—"टैरिफ तो लगेगा ही, साथ में नकद जुर्माना भी।"
दरअसल, टैरिफ ट्रंप के लिए "जादुई छड़ी" जैसा है। जिसे छूते ही सबक सिखाना चाहते हैं—मित्र देशों को भी और दुश्मन देशों को भी। फर्क बस इतना है कि जादुई छड़ी से आमतौर पर मुसीबत दूर होती है, और ट्रंप की छड़ी से महंगाई पास आ जाती है।
अब अदालत ने जो ब्रेक लगाया है, उससे ट्रंप का चुनावी ट्रक थोड़ी देर के लिए हिचकोले खा रहा है। मगर ट्रंप का स्टाइल ही यही है—"ज्यादा बोलो, ज्यादा वादे करो, ज्यादा टैक्स लगाओ और जब पकड़े जाओ तो कहो—कट्टरपंथी कम्युनिस्टों की साजिश है।"
आखिरकार, लोकतंत्र में टैरिफ भी वोट मांगते हैं और फैसले भी। फर्क बस इतना है कि अदालत वाले फैसले मुफ्त में आते हैं, और ट्रंप वाले फैसले जनता की जेब काटकर।
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