विजय शंकर पांडेय
बाहर शांति है, भीतर हाहाकार।
चेहरे पर मुस्कान, दिल में युद्धघोष।
कॉफी के प्याले से उठती भाप में छिपा है बारूद।
कुर्सी पर बैठा इंसान,
अंदर से मैदान बना होता है।
एक मन कहता है छोड़ दे,
दूसरा कहता है तोड़ दे।
खिड़की से बाहर हरियाली दिखती है,
मगर मन में रेगिस्तान चल रहा होता है।
वहाँ कोई तलवार नहीं होती,
बस यादें, फैसले और पछतावे हथियार बन जाते हैं।
शांत कमरे में गूंजती है—“क्या वाकई ठीक किया?”
और उत्तर?
वो कभी आता ही नहीं।
बॉस सराहता है "मजबूती",
दोस्त कहते हैं "तू तो चट्टान है",
मगर चट्टान भी अंदर से दरकती है।
कभी कभी,
सबसे खतरनाक जंग
"ना" कहने से पहले लड़ी जाती है।
और जीतने वाला,
अक्सर सबसे ज़्यादा थका होता है।
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