शर्म का मीटर #TRP की भट्ठी में जल कर राख

 




विजय शंकर पांडेय 


गिद्ध मीडिया कभी शर्मिंदा नहीं होती, और क्यों हो? उसका तो पूरा कारोबार ही लाशों पर टिका है—चाहे वो सचमुच की लाश हो या किसी की इज्जत की। न्यूज चैनल खोलो तो लगता है जैसे कोई हॉरर फिल्म चल रही हो, बस पॉपकॉर्न की कमी खलती है। ब्रेकिंग न्यूज का शोर ऐसा कि कान के पर्दे फट जाएं—"नशे के लिए तड़प रहे हैं साहिल-मुस्कान!" फिर अगले एक घंटे तक बहस, "क्या साहिल गलत था या मुस्कान बहुत चालाक थी?" पैनल में चार लोग चिल्ला रहे होते हैं, एंकर ताली बजा रहा होता है, और दर्शक सोचते हैं, "कहां फंस गए यार?" उदाहरण के लिए डिकोड करते हैं द नेशन वॉन्ट्स टू नो तकिया कलाम वाली पत्रकारिता को, अरे भाई, नेशन को तो बस चाय और नेटफ्लिक्स चाहिए, पर आप क्यों मान लिए हैं कि आप ही नेशन हैं? पता है आपको शिकार की तलाश है, मगर इतनी सी बात के लिए मीडिया का अंधा हो जाना, कोई हैरतअंगेज बात नहीं। 



ये गिद्ध मीडिया का कमाल है कि किसी की जिंदगी में तूफान आए, तो ये कैमरा लेकर पहुंच जाते हैं—माइक मुंह में ठूंसकर पूछते हैं, "आपको कैसा लग रहा है?" मान्यवर, अभी-अभी उसका घर डूबा है, क्या जवाब देगा— "बहुत मजा आ रहा है, थैंक्स फॉर कमिंग"? लेकिन नहीं, गिद्ध को अपनी टीआरपी की भूख मिटानी है। एक बार किसी ने ट्वीट किया था कि उसकी चप्पल चोरी हो गई, बस फिर क्या—दो घंटे की प्राइम टाइम डिबेट, "क्या ये चप्पल चोर देशद्रोही है?" तीन एक्सपर्ट बुलाए गए, एक ने कहा चप्पल का रंग भगवा था, दूसरा बोला नीली थी, तीसरा चिल्लाया, "ये तो अंतरराष्ट्रीय साजिश है!"


और हंसी की बात ये कि ये लोग खुद को "जनता की आवाज" कहते हैं। जनता की आवाज? अरे, जनता तो रिमोट हाथ में लिए चैनल बदल रही होती है, पर इनके पास जनता के लिए वक्त कहां? इनका तो बस एक ही मंत्र है—सनसनी पैदा करो, विज्ञापन लाओ, पैसा कमाओ। किसी की शादी टूटी, बच्चा गायब हुआ, या पड़ोसी ने गाली दे दी—हर चीज में इनके लिए मसाला है। फिर शुरू होती है मेलोड्रामा की दुकान—पृष्ठभूमि में दुखी संगीत, एंकर की आंखों में नकली आंसू, और स्क्रीन पर बड़े-बड़े अक्षरों में "शॉकिंग न्यूज"। शॉकिंग न्यूज ये नहीं कि घटना हुई, शॉकिंग ये है कि कोई अब भी इनको गंभीरता से लेता है।


फिर भी, शर्मिंदगी इनके पास फटकती भी नहीं। एक बार गलत खबर चलाई, माफी मांगने की बजाय बोले, "हम तो पहले बताने वाले थे!" अरे, पहले बताने का मतलब सच बताना नहीं होता, पर गिद्ध को कौन समझाए? इनका तो बस एक ही सिद्धांत है—लाश दिखाओ, चाहे वो सच की हो या झूठ की। सोशल मीडिया पर लोग इनका मजाक उड़ाते हैं, मीम्स बनाते हैं, पर क्या फर्क पड़ता है? गिद्ध को तो बस अपने पंख फैलाने हैं, उड़ते रहना है, और अगली खबर की तलाश में आसमान छानना है। जनता चिल्लाए, "बंद करो ये तमाशा!" पर गिद्ध मुस्कुराते हुए कहता है, "अरे, आप ही तो हमें टीआरपी देते हो, अब शिकायत क्यों?" सच में, गिद्ध मीडिया कभी शर्मिंदा नहीं होती, क्योंकि उसका शर्म का मीटर तो कब का टीआरपी की आग में जलकर राख हो चुका है।


24 मार्च 2025



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