पिता के चेहरे की झुर्रियाँ किताब नहीं,
पूरी लाइब्रेरी होती हैं।
हर रेखा में छिपा होता है संघर्ष का अध्याय।
हर सिलवट में दर्ज होता है परिवार का हिसाब।
पिता एटीएम नहीं होते, मगर हम उन्हें वहीं समझते हैं।
वो सर्दियों में ओढ़ा हुआ पुराना कोट होते हैं,
जिसके नीचे घर गर्म रहता है।
पिता हंसते नहीं,
क्योंकि उनके दांत ईएमआई में गिरवी होते हैं।
पिता रोते नहीं,
क्योंकि आंसू की कीमत दूध के पैकेट से ज्यादा होती है।
हम उन्हें सुपरमैन कहते हैं,
पर असल में वो रिक्शावाला सुपरमैन होते हैं—
खुद पसीने से भीगे, हमें सूखा रखते हुए।
घर की दीवारों पर लगी पपड़ी हट सकती है,
लेकिन पिता की पीठ पर चढ़ा बोझ नहीं।
हम सेल्फ़ी में माँ पर फोकस करते हैं,
और पिता का चेहरा फ्रेम से बाहर रह जाता है।
बिना पिता बने, पिता क्यों नहीं समझ आते?
क्योंकि पिता सिर्फ़ इंसान नहीं, एक "लाइफ-लोन" होते हैं।
पिता को पढ़ना आसान नहीं।
उनकी किताब में भावनाएँ छोटे फ़ॉन्ट में लिखी होती हैं।
इन्हें समझने के लिए चश्मा नहीं,
ज़िम्मेदारी चाहिए।
इसलिए बिना पिता बने,
पिता कभी पूरी तरह समझ में नहीं आते।
क्योंकि वो "अनुभव" की भाषा में लिखे जाते हैं।
व्यंग्य यही है कि हम "महानायक" खोजने सिनेमाहॉल जाते हैं,
जबकि असली नायक घर की चप्पल घिसता है।
पिता की झुर्रियाँ पढ़ने के बाद सच बचता है—
कि दुनिया गोल है,
पर पिता का त्याग चौकोर थाली की तरह,
जहाँ सबको हिस्सा मिलता है,
सिवाय पिता के।
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