विजय शंकर पांडेय
लगभग दस साल पहले कानपुर के काकादेव इलाके में मैं रावतपुर बाजार की तरफ जाने वाली सड़क पर किराए पर रहता था. फर्स्ट फ्लोर पर मेरा फ्लैट था. सड़क की तरफ की लंबी चौड़ी बॉलकनी भी मेरे ही हिस्से में पड़ती थी. मेरा छोटा बेटा अमूमन वहीं धूनी रमाए रहता. कारण, उसे वहां कोई रोकने टोकने वाला कभी कभार ही मिलता. इसलिए मनमानी करने की पूरी छूट होती. सामने सड़क के उस पार कुछ लोग झुग्गी झोपड़ी डाल गुजर बसर करते थे.
कानपुर में ठंड ठीक ठाक पड़ती है, कम से कम बनारस के मुकाबले. ठंड से निजात पाने के लिए वे लोग अक्सर अपनी झोपड़ी के आगे आग जलाए रखते. कई बार वे कूड़े कबाड़ को भी जलावन के तौर पर इस्तेमाल करते. यह सब देख मेरे बेटे को भी एक ‘इन्वोटिव आइडिया’ सूझा. पत्रकार के घर में खाने को भले कुछ न मिले, अखबारों व पत्रिकाओं का ढेर सहज सुलभ रहता है. मुझे तो कई पत्रकार साथी ओढ़ते बिछाते भी दिखे. मेरा किचन भी एक किनारे पर पड़ता था. दोपहर का खाना खाने के बाद जब सब आराम की मुद्रा में थे तो मेरा छोटा बेटा कुछ अखबार लिए किचन में पहुंचा और सुलगा कर आग तापने बैठ गया. जब धुआ और गंध बेडरूम तक पहुंचा तो हमे थोड़ा अटपटा लगा. मैंने अपने बड़े बेटे से कहा भी कि देखों कहीं कुछ जल रहा है, मगर वह सामने वालों का हवाला देकर टाल गया. थोड़ी देर बाद रहा नहीं गया. कारण, धुआं बढ़ता ही जा रहा था. हम सब उठ कर किचन की तरफ पहुंचे तो एकबारगी हतप्रभ रह गए, वह किचन में इत्मीनान से बैठा आग ताप रहा था. खैरियत थी कि बगल में रखा सिलिंडर बख्शे हुए था. हम सब ताबड़तोड़ लग भिड़ कर आग बुझाए और उसे पकड़ कर अपने साथ बेड रूम में ले आए.
यह किस्सा मुझे मेरा बचपन याद दिलाता है. पश्चिम बंगाल के हावड़ा जिले में तब हम किराए के मकान में फर्स्ट फ्लोर पर रहते थे. ग्राउंड फ्लोर पर ज्यादातर गेस्टकिन विलियम्स लि. के कर्मचारी रहा करते थे. गौरतलब है कि गेस्टकिन विलियम्स साल 1920 में हावड़ा में हेनरी विलियम्स द्वारा स्थापित एक इंजीनियरिंग कंपनी है. तब गेस्टकिन कर्मचारियों में पूर्वांचल के लोगों की तादाद अच्छी खासी हुआ करती थी, विशेष तौर पर आजमगढ़ियों की. सड़क पर एक हैंडपंप था. ठंड तो वैसे बंगाल में कुछ खास असर नहीं दिखाती, मगर वहां की चिपचिपी गरमी नाको चने चबवा देती. अमूमन शाम को ग्राउंड फ्लोर के ज्यादातर लोग हैंडपंप पर इकट्ठा होते और बारी-बारी से खुद चला कर ठंडे पानी से देर तक नहाते. अमूमन स्कूल से छुट्टी के बाद जब मैं सड़क के उस पार स्थित रेलवे क्वार्टर के बीएनआर माठ में खेलने के लिए निकलता तो उन सब को खुले में लबे सड़क नहाते देख मन ही मन ललचता. कारण मेरे पिता सुबह दफ्तर के लिए निकलते तो देर रात ही लौटते. वैसे मेरे घर के पिछवाड़े एक बड़ा सा पुकुर (तालाब) भी था, जिसमें ज्यादातर बंगाली परिवार नहाते धोते या अपने अन्य काम काज निबटाते, मगर मुझे पक्का विश्वास था कि पुकुर में जाने की अनुमति मुझे नहीं मिलेगी. क्योंकि एक किलोमीटर दूर तो हुगली (गंगा) नदी ही है, मगर वहां जाने से पहले मेरे घर वाले अमूमन पूरी तैयार करते. सबकी नजर मेरी हरकतों पर ही रहती.
खैर इसके बाद मैंने तय किया कि कोई न कोई जुगत भिड़ाकर मैं भी अब सुबह तो घर में ही पिता जी के साथ नहाउंगा, मगर शाम को अपना बाल्टी जग लेकर सड़क पर खुले में नहाने जाऊंगा. मां को सहमत भी कर लिया. कुछ दिन तो सब खैरियत रही. मजा लेता रहा. एक दिन दुर्घटना हो गई. मैं इतना छोटा था कि हैंडपम्प का हैंडल ऊपर की तरफ खिंच कर दबाने के लिए उछलना पड़ता. इसी दौरान हैंडल को आगे से जोड़े रखने वाला नट बोल्ट टूट कर बाहर निकल गया और मैं सीधे मुंह के बल जमीन पर गिर पड़ा. चेहरे पर कहां चोट लगी, वह तो याद नहीं, मगर जीभ सीधे तीन हिस्से में बट गई. मुंह से फव्वारे की तरह खून निकल रहा था. पूरा मुहल्ला इकट्ठा हो गया. मेरी हालत देख स्तब्ध भीड़ किंकर्तव्यविमूढ़ थी. कोई निर्णय नहीं ले पा रहा था. मैं खुद ही उठा. एक हाथ से मुंह ढका और दूसरे हाथ से अपना साबुन, बाल्टी और मग सहेजा. इसी दौरान पड़ोसी नदाई दा ने आगे बढ़कर मुझे अपनी गोद में उठा लिए. नदाई दा सड़क के दूसरी छोर पर एक गुमटी लगा कर लेमनचूस, बिस्कुट, ब्रेड आदि की दुकान चलाते थे. मैं उनका परमानेंट कस्टमर था. वे कुछेक अन्य पड़ोसियों और मेरी मां को लेकर सीधे हावड़ा जिला अस्पताल के लिए रवाना हो गए.
हालांकि इस दौरान एक्सपर्ट पड़ोसी अपनी अपनी राय देते रहे और मेरी मां लगातार रोए जा रही थी. बाद में मां ने बताया कि कोई कह रहा था कि यह बच्चा अब कभी नहीं बोलेगा तो कई बता रहा था कि जीभ के इतने टुकड़े हो गए हैं, अब काट उसे पूरी तरह निकाल देने के सिवाय कोई चारा डॉक्टरों के पास नहीं है. मेरी हालत देख कर तो मां के पैरों तले जमीन वैसे ही खिसक चुकी थी. एक्सपर्ट के कमेंट उसकी परेशानी और बढ़ा रही थी. खैर अस्पताल पहुंचते पहुंचते मेरे पिता व मामा वगैरह भी वहां पहुंच चुके थे. वहां इमरजेंसी में डॉक्टरों ने त्वरित कार्रवाई करते हुए जीभ को सहेज कर सिल दिया. देर रात मेरी हालत ठीक ठाक देख मुझे डिस्चार्ज भी कर दिया गया. कुछ दिन बाद मैं पूर्ववत अपने काम काज निबटाने लगा.
चार पांच साल बाद श्री शिक्षा सदन से आठवीं पास कर जब क्लास नाईन्थ में बंगाल जूट मिल हिंदी हाई स्कूल में दाखिला लिया तो मुझे रास्ते में आते जाते पत्र पत्रिकाएं खरीदने और पढ़ने का शौक चर्राया. नियमित तौर पर घर पर धर्मयुग, साप्ताहिक हिंदुस्तान, सारिका, पराग, माधुरी, नंदन आदि आदि आने लगी. पत्रकार, लेखक और साहित्यकार कहते किसे हैं, तब इसकी समझ तो मुझे बिल्कुल नहीं थी, मगर हैंडराइटिंग अच्छी होने पर कई लोग तारीफ में कसीदे पढ़ चुके थे. उन दिनों पत्राचार बहुत होता था. कई लोगों का मैं स्थायी पत्र लेखक भी था. इनमें निरक्षरों की तादाद ज्यादा थी. इनमें अच्छी खासी संख्या महिलाओं की थी. उनके पत्र लिखते वक्त उनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि और उस आधार पर पत्र पाने वाले के विषय में एक अनुमान जरूर लगाता. ताकि जिसे पत्र लिखा जा रहा है, वह अगर किसी से पढ़वा रहा है तो आसानी से समझ ले. यही मेरी यूएसपी थी.
मैं धर्मयुग के युवा कॉलम का नियमित पाठक हुआ करता था. मेरे पसंदीदा फिल्म स्टार थे धर्मेंद्र. धर्मेंद्र जैसी बॉडी के चक्कर में तब मैं चुपके चुपके अखाड़े का भी जायजा लेने लगा, मगर यह चस्का क्षणिक साबित हुआ. 1984-85 में अचानक मैंने अपने साथ हुए जीभ कटने के हादसे को एक स्टोरी में कन्वर्ट किया, उसमें थोड़ा नमक मिर्च लगाने के लिए कल्पना का भी सहारा लिया और सीधे धर्मयुग के संपादक को अपनी तस्वीर सहित पोस्ट कर दिया. हेडिंग लगाया जूनियर धर्मेंद्र की राम कहानी. कहानी को रोचक बनाने के लिए यह भी लिखा कि धर्मेंद्र की तरह स्टंट करने के चक्कर में यह हस्र हुआ. कुछ हफ्ते बाद हठात धर्मयुग के एक अंक में अपनी तस्वीर और स्टोरी देख मैं हतप्रभ रह गया. सबसे बड़ी बात यह थी कि हेडिंग भी जस की तस थी. मुझे तो यकीन ही नहीं हो रहा था. मगर उससे भी बड़ी बात यह थी कि तब धर्मयुग और साप्ताहिक हिंदुस्तान जैसी पत्रिकाएं घर घर में पढ़ी जाती थी. मुझे और मेरे परिजनों से परिचित लोगों के लिए मेरा धर्मयुग जैसी पत्रिका में छपना एक बड़ी खबर थी. मेरी इतनी तारीफ होने लगी कि मैं अगराने लगा और बिगड़ गया. यहीं से मैं पत्रकारिता/कलम घिसने के वायरस से पीड़ित हुआ.
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