खुद ही खबर है खबरनवीस, मगर दुनिया बेखबर है

 


विजय शंकर पांडेय 

बीते ढाई तीन दशक से जिस कम्युनिटी को मैं सबसे ज्यादे करीब से देख रहा हूं वह पत्रकार हैं.... मुहल्ला से लेकर सोशल मीडिया तक... इनमें से बहुतेरे ऐसे हैं जिनके पास पत्र है तो कार नहीं.... या फिर कार है तो पत्र नहीं.... वह भी पत्रकार ही हैं, जिनके पास न पत्र है न कार है...


कई बार देर रात भी लोग अपना एडिशन छोड़ने के बाद फोन कर अपनी मन की बात शुरू कर देते हैं.... एक बार तो आधी रात गए एक परेशान हाल मेरे पड़ोसी दफ्तर से सीधे मेरे घर आ धमके... मैं सोचा जरूर कोई इमरजेंसी होगी.... दरवाजा खोलते ही पूछा- क्या हो गया.... जवाब मिला – “कुछ नहीं, जरा इस ट्रांसफर लेटर को पढ़िए न.... मेरा विभाग ही बदल दिया गया है.... क्या करूं कुछ समझ में नहीं आ रहा...” उस शख्स की मासूमियत का अंदाजा आप लगा सकते हैं?


पत्रकार विशेष तौर पर अखबारी पत्रकार धरती का इकलौता ऐसा प्रोफेशनल है, जिसका जॉब नेचर चेंज हो जाए तो वह 'वीर बहूटी' बन जाता है... क्योंकि उसकी ट्रेनिंग ही गजब की होती है... उसे इतना ठोंक पीट दिया गया रहता है कि उसे टॉयलेट में भी न्यूज रूम जैसी फीलिंग चाहिए.... यकीन न हो तो किसी दिन वसुंधरा (गाजियाबाद) के जनसत्ता अपार्टमेंट के फ्लैटों में छापा डाल दीजिए.... ज्यादातर टॉयलेट में अखबार मिलने की गारंटी है.... बशर्ते उस फ्लैट में पत्रकार ही रहते हो....


यह पत्रकारिता की ही माया है कि अन्य क्षेत्र में मेरी वैसी कोई खास जान पहचान नहीं बनी.... मुहल्ले वाले अगर कभी मुझे कहीं पहचान लें.... तो मुझे ट्वीटर पर ट्रेंड होने जैसी फीलिंग होने लगती है.... इधर बीच अचानक मुझे ऐसा महसूस हो रहा है कि बेरोजगार पत्रकार से भी ज्यादा परेशान रोजगार वाले पत्रकार हैं.... आधार मिल रहे फीडबैक हैं....


कोरोना वायरस से भी ज्यादा संक्रामक और सेंसेक्स से भी कहीं ज्यादा संवेदनशील हैं भारतीय मीडिया के खंजाची... विशेष तौर पर भाषाई मीडिया के... 2008 की विश्वव्यापी मंदी के दौरान भारतीय अर्थव्यवस्था पर कोई खास प्रभाव देखने को नहीं मिला... जेट एयरवेज जैसे कुछ अपवाद जरूर थे... मगर मीडिया प्रबंधन इसे भी भुनाने से नहीं चूका... और भारी तादाद में पत्रकार और गैर पत्रकार बेरोजगार हुए... 2020 में कोरोना वायरस मीडिया मैनेजरों के लिए गोल्डेन चांस मुहैया करवा रहा है... क्योंकि मौका भी है दस्तूर भी... आत्मनिर्भर का सटीक विलोम क्या हो सकता है? पराश्रित, अनुजीवी या परजीवी.... आप चाहे तो इसे भाषाई पत्रकारों का पर्याय भी मान सकते हैं....


बीबीसी और प्रिंट में बेरोजगार हो रहे पत्रकारों पर स्टोरी हाल ही में पढ़ा... सोशल मीडिया का प्लस या माइनस प्वाइंट यह है कि आप किसी लिंक के सहारे मूल स्टोरी पर बाद में जाइएगा... उस पर रिएक्शन पहले पढ़ लीजिएगा... ज्यादातर कमेंट सिर्फ हेडिंग या फीचर फोटो को आधार बना कर लिख दिए जाते हैं... क्योंकि विक्षिप्त हो चुका समाज का एक अभिन्न अंग पढ़ने तक की जहमत मोल नहीं लेता... न ही उसके पास संवेदना और धैर्य की कोई गुंजाइश बची होती है... छह सात साल पहले 'प्रेस्टीट्यूट' शब्द चलन में आया... 'दलाल' इन दिनों फैशन में है... भले दो लाइन का कमेंट लिखने तक का सहूर न हो, मगर किसी व्यक्ति या समुदाय विशेष को सार्वजनिक तौर दलाल का तमगा थमा सकते हैं....




शब्द केवल संकेत मात्र होते हैं... इसी देश में दलाल स्ट्रीट का आभा मंडल बिल्कुल डिफरेंट हैं... मगर सोशल साइट के हुल्लड़बाजों का अंदाज बताता है कि पत्रकारों के घर छप्पर फाड़कर लक्ष्मी बरसती हैं... उन्हें नहीं पता कि कइयों के पास छप्पर तक नहीं है... पता होना आवश्यक भी नहीं है.... 1962 में संवैधानिक तौर पर बुद्धिजीवी से श्रमजीवी बना था पत्रकार... तब से अब तक के वेज बोर्ड में से हाल के कम से कम तीन का हस्र तो मैं देख रहा हूं... एक का भी सही मायने में लाभ उठाने से इस देश के ज्यादातर पत्रकार वंचित रहे... अब अगर वे लाभ उठाने की जिद पर अड़ते तो नौकरी से हाथ धोने के लिए किसी ओझा या सोखा की जरूरत नहीं पड़ती... भारी भरकम एरियर भुगतान की सिफारिश थी... मगर बहुतेरे को घंटा मिला... शिकायत तो दूर कानोकान कहीं चर्चा तक नहीं हुई...


भाषाई पत्रकारिता में एक लाख या इससे ज्यादा सैलरी वाले अगर पांच फीसदी भी अखबारी पत्रकार हो तो मुझे आश्चर्य है.... ठीक उसी तरह जैसे इस मुल्क की कुल आबादी का दो-ढाई फीसदी ही करोड़पति या अरबपति हैं... बाकी पत्रकार यदि स्टाफर है तो 15 से 45-50 हजार के बीच सैलरी पाते हैं..... हां पत्रकार नाम का जीव भौकाली जरूर होता है... सो अंदरखाने की बात यह है कि होम लोन, एजूकेशन लोन, पर्सनल लोन, क्रेडिट कार्ड का इंस्टॉलमेंट चुकाने में ही वह मरता खपता रहता है... मेरा गणित कमजोर है... इसलिए सिर्फ इस पैराग्राफ में दिए गए फैक्ट (थीम नहीं) मैंने किसी वरिष्ठ पत्रकार की पोस्ट से उधार लिया... ताकि तथ्यात्मक चूक न हो....


पत्रकार आसमान से नहीं टपकता... इसी समाज का हिस्सा होता है.... एक सामान्य आदमी में जितने गुण और अवगुण के कंटेट मिलते हैं, वह पत्रकार में भी होते हैं... होने भी चाहिए... नहीं तो उसके मनुष्य होने पर संदेह पैदा हो जाएगा... तो जब हम बाकी के अवगुण चित नहीं धरते तो पत्रकारों को भी यह डिस्काउंट देना चाहिए....


हो सकता है इनमें एकाध फीसदी ऐसे पत्रकार भी हो जिन्हें बबूल तले आम भी मिलता हो... और वे करोड़पति की श्रेणी में शुमार हो चुके हों... मगर इनमें ज्यादातर या यूं कह लीजिए 95 फीसदी को कोई ऊपरी आमदनी नहीं है... वे पूरी तरह से वेतन आश्रित स्टाफर/पत्रकार हैं... हां उदारवादी अर्थव्यवस्था की मेहरबानी है कि इन दिनों इनमें ज्यादातर ठेके पर हैं.... जो ठेके पर नहीं है, उनकी भी इस फैशन के जमाने में कोई गारंटी वारंटी नहीं है.... असली मलाई तो टॉप लेवल पर बैठे लल्लनटॉप या उनके ऊपर वाले जिल्लेइलाही चाटते हैं.... बिल्कुल राजनीतिक दलों के दिग्गज नेताओं की तरह, कार्यकर्ताओं के हाथ भला क्या आएगा...


रिक्शावाला या सब्जी का ठेला वाला पांच दस एक्स्ट्रा ले ले तो नाक भौं मत सिकोड़िए... पापी पेट का सवाल है... भाई, सौ दो सौ रुपये बख्शीस देने वाला पांच रुपये एक्स्ट्रा मांगने पर बिफर क्यों पड़ते है.... अशर्फी की लूट और कोयले पर छाप वाली कहावत ओल्ड फैशन है... वक्त के साथ खुद को बदलिए.... पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर ने कहा था कि भारत में भ्रष्ट तो पांच फीसदी से भी कम लोग हैं..... सनियोजित ढंग से यह परसेप्शन क्रिएट किया गया है.... ताकि सब एक ही लाठी से हांके जाए....


मेरे एक वरिष्ठ पत्रकार साथी अक्सर एक किस्सा सुनाया करते थे... उनकी बीवी जब भी सुनती कि हेड आफिस से मीटिंग के लिए बुलावा है... तपाक से पूछती कि हेड आफिस तो छुट्टी करने के लिए ही बुलाता है... कहीं इस बार तुम्हारा नंबर तो नहीं है? अर्थात आप इस नौकरी में तलवार की धार पर 24x7x365 रहते हैं....


श्रम कानूनों में फेरबदल पर बड़ी हाय तौबा मची है..... ज्यादातर आपत्तियां काम के घंटों को लेकर है.... आपने सुना क्या कि किसी पत्रकार संगठन ने इस पर आपत्ति जताई है? नहीं न? क्यों? क्योंकि उन्हें पता है कि बिना कानून में संशोधन किए ही ज्यादातर पत्रकार कम से कम 14 से 16 घंटे ड्यूटी बजाते हैं.... अरसे से यही हाल है.... वैसे वे मुलाजिम 24 घंटे के होते हैं... इसलिए पानी सर के ऊपर भी चला भी जाए तो वे रिलैक्स मूड में ही मिलेंगे....


कई बार स्टाफर से ज्यादा सुखी अंशकालिक संवाददाता मिल जाते हैं... जिनके पास साइड में अपना एक ठोस आर्थिक आधार होता है.... और सोशल स्टेट्स के लिए पत्रकारिता की बैसाखी भी... ज्यादातर मीडिया संस्थान न्यूनतम स्टाफ और अधिकतम कारसेवकों के बूते चलते हैं... यूपी बिहार सरीखे राज्यों में व्हाइट कॉलर जॉब के लिए लालायित अच्छी खासी भीड़ फ्री में सुलभ है... जो घर से गंवा कर भी मीडिया के लिए कार सेवा करने को तैयार बैठी है.... प्रबंधन के लिए यह क्लास ऊपरवाले की नेमत है.... अगर वह रेवेन्यू जुटाने में भी माहिर है तो सोने पर सुहागा है... बल्कि यूं कह लीजिए दुधारू गाय की दुलत्ती भी सहता है प्रबंधन.... हां, वे अपनी शर्तों पर तिगनी का नाच भी नचाते है.... प्रबंधन नाचता भी है...


हां, यहां जौ के साथ घुन भी पिसते हैं... इन कार सेवकों में कुछ ऐसे भी होते हैं... जिनकी माली हालत ठीक नहीं है, उम्मीद के भरोसे हजार दो हजार पर अंशकालिक संवाददाता बन अपना जीवन बर्बाद कर लेते हैं.... आज तक मुझे सिर्फ एक पत्रकार वह भी पंजाब में मिला था, जिसने जवाब दिया कि इससे तो अच्छा है कि मैं जालंधर स्टेशन पर जाकर रिक्शा चलाऊं.... इनमें बहुतेरे पत्रकार अच्छे दिनों की आस में मनरेगा मजदूरों से भी बदतर हालत में हैं.... जब प्रबंधन को वे रास आना बंद करते हैं तो दूध की मक्खी की तरह निकाल कर फेंक दिए जाते हैं... कोई जवाबदेही नहीं है.... यह वह तबका है जो ड्यूटी के दौरान जान भी किसी हादसे में गवा दे तो अखबार इनके लिए अपना सिंगल कॉलम तो गंवाने को तैयार नहीं होता... अगर कहीं संक्षेप में खबर लटक भी गई या लटका दी गई तो इस बात का पूरा ख्याल रखा जाता है कि उसमें कहीं यह जिक्र न हो कि वह उनके ही संस्थान से जुड़ा था... वरना मृतक आश्रित क्षतिपूर्ति या फौरी राहत का दावा ठोंक सकते हैं....


एक न्यूज पोर्टल के लिए कंटेट मुझे तय करने थे.... मैंने साथियों से कहा कि पत्रकारों के साथ भी कोई खबर जैसी घटना, दुर्घटना होती है तो वह भी सलीके से जाएगी... क्योंकि उन्हें बड़े अखबार स्पेस ही नहीं देते... बशर्ते वह वाकई खबर हो.... अगले दिन संवाददाताओं ने खबर भिजवानी शुरू कर दी.... फलां पत्रकार सुरक्षा समिति या जर्नलिस्ट एसोशिएसन के अध्यक्ष महामंत्री ने अमुक बात कही.... एकाध को मैं तवज्जो भी दिया.... इस उम्मीद से कि वक्त के साथ पत्रकारों की बातें भी सामने आएंगी.... आखिरी में इस नतीजे पर पहुंचा कि पत्रकारों से ज्यादा तो पत्रकारों के नेता हैं.... यह दीगर बात है सोशल मीडिया और खबरों में ही वे कोरोना की भांति सर्वाइव करते हैं.... परीक्षा की घड़ी उनके लिए साबुन या सेनेटाइजर साबित होती है.... ज्यादातर पत्रकार संगठनों की कमान गैर या निष्क्रिय पत्रकारों के हाथों में है...


अमूमन स्टाफर पत्रकार सोशल सर्किल में अपने संस्थान के मार्फत ही अपना परिचय देता है.... मगर दिल्ली के इर्द गिर्द के अंचलों में एक नया चलन हाल के वर्षों में देखने को मिला.... पहले वे गर्व से बताएंगे कि मैं फला सांसद/मंत्री या विधायक जी का मीडिया सलाहकार हूं.... पिछले साल लखनऊ में भी ऐसे ही विचित्र जीव मिल गए.... संयोग से पड़ोसी थे.... इंट्रोडक्शन के दौरान थोड़ी भूमिका के बाद शुरुआत ही इस बात से किए कि 25 से 30 लाख का विज्ञापन तो निकलवा ही लेता हूं.... इसके बाद बताते हैं कि फलां चैनल या अखबार से जुड़ा हूं.... आपको जरूरत हो तो बताइएगा.... पत्रकारों का यह क्लास कई संपादकों से भी ज्यादा सुखी क्लास है.... मीडिया में पूंजी की जरूरत हमेशा बनी रहती है... इंडस्ट्रलिस्ट के लिए मीडिया पोलिटिकल वेपन भर है.... उसके अन्य उपक्रमों के व्यावसायिक लाभ और घाटे के मद्देनजर ही अखबार या चैनल की रणनीति बनती और बिगड़ती है....


एक दौर में अखबारों के एडिटर ही नहीं, मैनेजर भी एडिटोरियल सेंस वाले ही संवेदनशील लोग हुआ करते थे.... अब एफएमसीजी वाले ब्रांड फुल फॉर्म में हैं..... उनके लिए तेल साबुन से ज्यादा मायने नहीं रखती पत्रकारिता.... फिर आप रांग नंबर डायल कर फालतू में भेजा फ्राई क्यों कर रहे हैं.... 'आजतक' जैसे बड़े संस्थान की आज की ब्रेकिंग न्यूज एंज्वॉय कीजिए.... 'लॉकडाउन में मिली छूट तो सैफ करीना संग घर से बाहर निकले तैमूर....' इससे विशेष तौर पर प्रशिक्षु पत्रकारों और पाठकों/दर्शकों को खबर सिलेक्शन का विजन समझना चाहिए... #Mediapa


8 जून 2020

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