विजय शंकर पांडेय
ट्रंप चच्चा का फंडा क्लियर है। फुलटॉस थेथरई। अमेरिका फिर से अपनी पुरानी रागिनी गा रहा है। भारत के साथ व्यापार घाटे का रोना! 44.4 अरब डॉलर का घाटा, बोले तो, "भारत हमें लूट रहा है!" इसे कहते हैं कि पड़ोसी की शादी में जाकर लड्डू भी भकोस आए और गिफ्ट की भी बाट जोह रहा हैं।
GTRI के अजय श्रीवास्तव ने तो अमेरिकी दुराग्रह का पर्दाफाश ही कर दिया। भाई साहब, 80-85 अरब डॉलर हर साल चुपके से भारत से कमा लेते हो, और फिर भी "घाटा-घाटा" का ढोल पीटते हो? ये तो वही बात हुई कि बाजार से 100 रुपये की सब्जी खरीदो, 40 रुपये जेब में डालो, और फिर चिल्लाओ कि दुकानदार ने तुम्हें ठग लिया! भारतीय छात्रों से करीब 25 अरब डॉलर, बड़ी टेक कंपनियों से 15-20 अरब डॉलर, अमेरिकी बैंकों और सलाहकारों से 10-15 अरब डॉलर और ग्लोबल कैपेबिलिटी सेंटर्स (GCCs) से 15-20 अरब डॉलर।
इसके अलावा, दवा, लाइसेंस, मनोरंजन और रक्षा से होने वाली कमाई को भी जोड़ लें तो घाटा फायदे में बदल जाता है। सोचिए, अमेरिका कितना बड़ा घाघ है! एक तरफ भारत से सॉफ्टवेयर, मसाले, और जेनेरिक दवाइयाँ लेते हैं, दूसरी तरफ "छिपा हुआ" 40 अरब डॉलर का मुनाफा—लगभग 3.43 लाख करोड़ रुपये—अपनी तिजोरी में भरते हैं। और फिर ड्रामा, "हम तो डूब गए!" अरे, भाई, अगर इतना घाटा है, तो हर साल ये गुपचुप कमाई कहाँ से आ रही है? क्या भारत तुम्हें मुफ्त में बिरयानी परोस रहा है?
चलो, अगली बार जब अमेरिका घाटे का रोना रोए, तो बस इतना कहना— "भैया, पहले अपनी जेब तो चेक कर लो!" सच तो ये है कि घाटा सिर्फ व्यापार में नहीं, गणित और नैतिकता में भी है। अमेरिका चाहता है – डेटा हमारा, मुनाफा हमारा, शिकायत तुम्हारी। कुल मिलाकर, अमेरिका का ट्रेड घाटा ऐसा रोना है जिसमें आँसू नकली हैं और रुमाल ब्रांडेड – 'मेड इन इंडिया'।
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