बारूद_की_मुस्कान

विजय शंकर पांडेय


सभ्यता थी।

चलती थी।

अब रेंगती है।


इंसान था।

सोचता था।

अब सिर्फ क्लिक करता है।








बस्ती उजड़ी,

फिर भी बजती रही ताली।

कब्रें खुदीं,

पर हेडलाइन बनी "ऐतिहासिक कामयाबी"।



इधर बच्चे रोए,

उधर शेयर बढ़े।

इधर लाशें गिरीं,

उधर ड्रोन "सक्सेसफुल" रहा।



शांति समझौते अब वॉर ज़ोन से आते हैं।

और युद्ध का ठेका, टाई में साइन होता है।





जिन्हें मरना था, वे खामोश हुए।

जिन्हें मारना था, वे लाइव आए।



 सभ्यता के मलबे पर,

कॉकटेल थामे

स्माइल कर रहा है

बारूद का व्यापारी।



मौत अब महज़ एक डेटा पॉइंट है।

और ज़िंदा रहना — एक किस्मत।



शब्दों की जगह अब रॉकेट बोलते हैं।

और प्यार की जगह

प्रोफाइल फोटो पर फ्रेम बदलते हैं।



धर्म, देश, नस्ल — सब बिकते हैं।

और खरीदार वही जो

तिजोरी में जंग नहीं लगने देता।



दोनों हारे हैं —

जिन्होंने मारा भी,

और जो मरे भी।



फिर भी जश्न है।

क्योंकि टीवी पर

"हमें गर्व है" का स्क्रॉल चल रहा है।






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