सवाल पूछना, सोच को चुनौती देना और आईना दिखाना

 व्यंग्य 

विजय शंकर पांडेय

अगर आपकी नजर में सवाल पूछना, सोच को चुनौती देना और आईना दिखाना केवल मूर्खता है — तो फिर पढ़ना लिखना वाकई मजाक भर है! हार्वर्ड यूनिवर्सिटी पर एक बार फिर से निशाना साधते हुए अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने दावा किया कि यह विश्वविद्यालय एक मजाक है और यहां पढ़ाने वाले टीचर मूर्ख। ट्रंप ने यह टिप्पणी तब की है, जब उनके प्रशासन ने हार्वर्ड को दिए जाने वाले फंड लगभग 2.3 बिलियन अमरीकी डॉलर को रोक दिया है। 




ये संस्थान वही सिखाते हैं जो बाकी नहीं सिखा पाते

तो अब सवाल उठता है — क्या ये संस्थान वाकई में नफरत और मूर्खता सिखाते हैं? सच कहें तो नहीं। ये संस्थान वही सिखाते हैं जो बाकी नहीं सिखा पाते — सवाल पूछना, सोच को चुनौती देना और कभी-कभी सरकार से डरने के बजाय उसे आईना दिखाना। और यही बात कुछ लोगों को मूर्खता लगती है। अंततः, एक चीज़ तो पक्की है — ज्ञान का रास्ता आसान नहीं होता, लेकिन उसमें मजाक ढूँढने वालों की कभी कमी नहीं होती। हार्वर्ड और जेएनयू जैसे संस्थान नफरत नहीं, बल्कि असहमति का साहस सिखाते हैं।


हार्वर्ड के छात्रों को अपना नाम "ह्यूमरवर्ड" रख लेना चाहिए


ये दोनों विश्वविद्यालय अक्सर सुर्खियां बटोरते हैं। एक पश्चिम में बसा है, हार्वर्ड विश्वविद्यालय और दूसरा पूरब के ज्ञान के गलियारों में गूंजता है, जेएनयू। दोनों ही संस्थानों का काम है ज्ञान बाँटना, लेकिन कुछ महान आत्माओं को वहाँ सिर्फ “नफरत और मूर्खता की फैक्ट्री” ही नजर आती है। डोनाल्ड ट्रंप ने अचानक हार्वर्ड को देखा और बोले, “ये तो मजाक है! यहां तो बच्चे पढ़ने नहीं, लड़ने आते हैं। ये मुझे खारिज करते हैं, और खुद को लिबरल कहते हैं। ये तो बायस्ड ब्रेनवॉशिंग है। ट्रंप के इस बयान के बाद हार्वर्ड में पढ़ रहे छात्रों को तुरंत अपना नाम बदलकर "ह्यूमरवर्ड" रख लेना चाहिए। 



करियर की शुरुआत नारेबाज़ी, विरोध प्रदर्शन से

उधर भारत में, जेएनयू भी पीछे नहीं है। एक दौर था, जब लोग जेएनयू में प्रवेश मिल जाता था तो माता-पिता मिठाई बाँटते थे। फिर एक युग आया जब वहीं के छात्र देशद्रोही घोषित किए जाने लगे— चाय की टपरी पर बैठे चचा बोले, “किताब पढ़ते नहीं, पोस्टर चिपकाते हैं। ज्ञान नहीं, नारे लगाते हैं।” और देखते ही देखते टटका समझदारों की दुनिया में जेएऩयू का मतलब हो गया — जस्ट नॉनसेंस यूनिवर्सिटी। इन दोनों विश्वविद्यालयों में एक अजीब समानता है। दोनों ही जगहों पर छात्र सरकार की आलोचना करते है— और जैसा कि हर शक्तिशाली सरकार मानती है, “जो हमारे खिलाफ बोले, वो देश के खिलाफ बोले!” इसलिए ये विश्वविद्यालय “मूर्खता के महल” बन गए। दिलचस्प बात ये है कि इन दोनों जगहों पर हर साल हज़ारों छात्र भर्ती होते हैं, जो अपने करियर की शुरुआत नारेबाज़ी, विरोध प्रदर्शन प्रैक्टिकल और सोशल मीडिया वॉरफेयर से करते हैं। पढ़ाई बाद में कभी होती है, जब विवाद खत्म हो जाता है (जो कभी नहीं होता)।


भड़काऊ पत्रकारिता में पीएचडी


मीडिया ने भी दोनों संस्थानों को अपना प्रिय पंचिंग बैग बना रखा है। हार्वर्ड पर फॉक्स न्यूज़ कहती, “लिबरल लॉबी की लैब है ये।” उधर जेएनयू पर कुछ चैनल कहते हैं, “टुकड़े-टुकड़े गैंग का अड्डा है ये।” इन चैनलों के ऐंकरों की स्पेशल डिग्री मिलनी चाहिए — भड़काऊ पत्रकारिता में पीएचडी।



आखिरकार, नफरत के बिना सोशल मीडिया का क्या मोल?

अब सवाल यह है कि अगर हार्वर्ड और जेएनयू वाकई नफरत और मूर्खता सिखाते हैं, तो दुनिया को इनकी क्या ज़रूरत है? बिल्कुल वाजिब सवाल है! आखिरकार, नफरत के बिना सोशल मीडिया का क्या मोल? और मूर्खता के बिना वायरल वीडियोज़ का क्या मज़ा? हार्वर्ड और जेएनयू जैसे संस्थान हमें सिखाते हैं कि कैसे एक-दूसरे से असहमत होते हुए भी हम ज़िंदगी को और मसालेदार बना सकते हैं। तो अगली बार जब कोई कहे कि ये विश्वविद्यालय "मजाक" हैं, तो बस मुस्कुराइए और कहिए, "हाँ, लेकिन ये मजाक हमें सोचने, हँसने और कभी-कभी गुस्सा होने की वजह तो देता ही है!" आखिर, नफरत और मूर्खता भी तो एक कला है, और इन विश्वविद्यालयों ने इसे पूर्णता तक पहुँचा दिया है।


कैसे ट्वीट करके किसी को ट्रोल करना है


ऐसा भी नहीं है इन विश्वविद्यालयों में बुद्धिजीवी नहीं है। मसलन अगर हार्वर्ड के प्रोफेसर से आप पानी माँगें, तो वे पहले आपको "पानी का सामाजिक-आर्थिक प्रभाव" पर लेक्चर देंगे। सुनते हैं, हार्वर्ड में अब छात्रों को सिखाया जाता है कि कैसे ट्वीट करके किसी को ट्रोल करना है। कोर्स का सिलेबस इतना "प्रोग्रेसिव" है कि अगर आपने गलती से "सत्य" बोल दिया, तो आपको फेल किया जा सकता है। उधर, जेएनयू भी पीछे नहीं। कुछ साल पहले तक कुछ लोग कहते थे कि वहाँ के छात्र दिन-रात सिर्फ़ नारेबाजी करते हैं और प्रोफेसर "क्रांति का इतिहास" पढ़ाते हैं। 


दोनों विश्वविद्यालय एक-दूसरे से सौतिया डाह भी रखते हैं


एक बार तो जेएनयू में एक सेमिनार हुआ, जिसमें टॉपिक था, "कैसे करें सरकार का मूड खराब, बिना जेल जाए।" सुनने में आया कि जेएनयू के कैंटीन में चाय के साथ "मार्क्सवाद" और "लोकतंत्र का पोस्टमार्टम" मुफ्त में परोसा जाता है। लेकिन मज़े की बात ये है कि दोनों विश्वविद्यालय एक-दूसरे से सौतिया डाह भी रखते हैं। हार्वर्ड वाले कहते हैं, "हम तो ग्लोबल एजेंडा चलाते हैं, जेएनयू तो बस वोकल फॉर लोकल है।" जेएनयू वाले पलटवार करते हैं, "हमारे वोकल फॉर लोकल में स्वदेशी तड़का है, तुम तो बस कॉरपोरेट नफरत बेचते हो।" दोनों के बीच एक बार वर्चुअल डिबेट भी हुई, जिसका टॉपिक था, "नफरत सिखाने में कौन बेहतर?" लेकिन डिबेट शुरू होने से पहले ही दोनों पक्षों ने एक-दूसरे को "फांसीवादी" और "नियो-लिबरल" कहकर कैंसिल कर दिया।

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