व्यंग्य
विजय शंकर पांडेय
यूपी और बिहार की बंद चीनी मिलें ऐसी हैं जैसे कोई पुराना मुरब्बा हो, जो सालों से दादी की अलमारी में पड़ा हो—दिखने में तो मीठा लगे, पर खाने की हिम्मत कोई न करे। हर पांच साल में चुनाव का मौसम आता है, और इन चीनी मिलों को याद करने का सिलसिला शुरू हो जाता है। नेता लोग मंच पर चढ़ते हैं, माइक थामते हैं और आंसुओं से गिले आवाज में कहते हैं, "हमारी सरकार आएगी, तो इन मिलों को फिर से चालू करेंगे। गन्ना फिर से सोना बनेगा, और हर किसान का घर चीनी से भर जाएगा।" जनता तालियां बजाती है, सपने देखती है, और वोट डाल देती है। फिर क्या? चुनाव खत्म, सरकार बनती है, और चीनी मिलें वैसे ही खंडहर बनकर रह जाती हैं—जैसे कोई भूतहा महल, जहां सिर्फ चमगादड़ों का बसेरा हो।
इन मिलों की हालत देखकर लगता है कि ये कोई टाइम मशीन हैं, जो हमें सीधे 1970 के दशक में ले जाती हैं। जंग लगी मशीनें, टूटी दीवारें, और आसपास उगी झाड़ियां—ये सब मिलकर एक परफेक्ट सेट बनाते हैं किसी भोजपुरी हॉरर फिल्म का। पर सच कहें, तो इनका असली डरावना पहलू ये है कि इनके बहाने हर बार वोट मांगे जाते हैं, और हर बार ये वादे हवा में उड़ जाते हैं। नेता जी कहते हैं, "हमने तो कोशिश की, पर फंड नहीं आया।" अरे भाई, फंड नहीं आया तो अपने भाषणों में इतना मीठा-मीठा क्यों बोलते हो? शक्कर की जगह नमक का वादा कर दो, कम से कम सच तो बोलो।
किसानों की हालत तो और मजे की है। गन्ने का भुगतान सालों तक अटका रहता है, और ऊपर से सुनने को मिलता है कि "मिलें बंद हैं, तो पैसा कहां से आएगा?" अरे, मिलें बंद हैं तो चालू क्यों नहीं करते? जवाब मिलता है, "अरे, ये इतना आसान नहीं है। प्लानिंग चाहिए, बजट चाहिए, इच्छा शक्ति चाहिए।" इच्छा शक्ति? वो तो सिर्फ चुनाव जीतने तक रहती है, उसके बाद तो कुर्सी की मिठास ही काफी हो जाती है। बेचारा किसान गन्ने के ढेर के पास बैठकर सोचता है कि काश उसने गन्ने की जगह कुछ और बोया होता—शायद मिर्ची, जो कम से कम नेताओं के वादों की तरह तीखी तो होती।
और फिर आता है चुनाव का मौसम। बैनर लगते हैं, रैलियां निकलती हैं, और चीनी मिलें फिर से सुर्खियों में आ जाती हैं। कोई नेता कहता है, "हम मिलों को प्राइवेटाइज करेंगे।" दूसरा चिल्लाता है, "नहीं, हम इसे सरकारी रखेंगे।" तीसरा बीच का रास्ता निकालता है, "हम इसे PPP मॉडल पर चलाएंगे।" जनता सोच में पड़ जाती है—PPP यानी पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप, या "प्रॉमिस, प्रॉमिस, फिर पछतावा"? नतीजा वही—मिलें बंद, गन्ना बेकार, और किसान के हाथ में सिर्फ एक वोटिंग स्लिप।
तो ये है यूपी-बिहार की बंद चीनी मिलों का मुरब्बा—चुनाव में चखने को मिलता है, पर बाद में सिर्फ खाली डिब्बा हाथ लगता है। अगली बार जब कोई नेता इन मिलों का जिक्र करे, तो बस इतना पूछ लीजिएगा, "भैया, ये मुरब्बा कब तक चलेगा, या अब इसे फेंककर कुछ ताजा बनाया जाए?" जवाब शायद न मिले, पर हंसी जरूर आएगी।
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