सपनों की टंकी फुल रखें, बढ़ेगा भेजे का माइलेज

 


विजय शंकर पांडेय 


कहा जाता है कि खाली दिमाग शैतान का घर होता है। इसलिए भेजा बेरोजगार कभी नहीं होना चाहिए। अपने एक कोठी का धान दूसरे कोठी में ही रखना शुरू कर दें। यह न्यू इंडिया है। हर चीज़ की ब्रांडिंग जरूरी है। कुछ और नहीं तो कम से कम कुछ मुहल्लों, जिलों, स्टेशनों का ही नया नामकरण कर दें। इससे खलिहर बैठे लोगों को बेरोजगारी के दंश से मुक्ति न सही, राहत तो मिलेगी ही। और खलिहरों को नया नाम याद करने का टास्क भी मिल जाएगा। न्यू न्यू ही नहीं, कूल कूल फील भी होगा। 


हींग लगे न फिटकरी रंग भी चोखा


इसे ही कहा जाता है, हींग लगे न फिटकरी रंग भी चोखा होय। अब तक बेरोजगार को खाली बैठा हुआ माना जाता था। अब उसे ‘संभावनाओं से भरा’ व्यक्ति समझा जाएगा। उसकी जेब भले खाली हो, मगर सपनों की भरमार होगी। प्राउड फील करेगा। हौसला बुलंद होगा तो जाहिर है प्रोडक्टिविटी भी बढेगी। हो सकता है उत्साह के ओवरडोज का साइड इफेक्ट हो और वह कोई नया गुल खिला दे या अविष्कार कर इतिहास में दर्ज हो जाए। 


पहली अप्रैल से 800 दवाएं महंगी 


ठीक इसी तरह मैं भी अपने खलिहरपन से उबरने के लिए ही यह टिप्पणी लिखने बैठ गया। मुझे दृढ़ विश्वास है कि अर्थव्यवस्था भी इस तरह के बदलावों का स्वागत करेगी। इस चेंज से इस तपती गर्मी में ठंड का अहसास करेगी। उसे तनिक नहीं कचोटे इसलिए पहली अप्रैल से 800 दवाएं महंगी करने का फैसला हो ही गया है। इसमें बुखार से लेकर कैंसर, हार्ट और डायबिटीज तक की दवाएं शामिल हैं। जाहिर इतना महत्वपूर्ण फैसला लिया गया है तो कुछ दूरगामी फायदा सोच कर ही लिया गया होगा। अब कंपनियां कहेंगी कि, "हमें मज़दूर नहीं, आकांक्षी युवा चाहिए!" बिना वेतन वाले इंटर्नशिप अब ‘आत्मनिर्भरता’ का प्रतीक होंगे। ठेले पर पकौड़े तलने वाले अब ‘स्ट्रीट फूड एंटरप्रेन्योर’ कहलाएंगे। 


इस बदलाव के बाद अखबारों की कुछ हेडलाइन्स भी मैं सुझा ही देता हूं - 


"आकांक्षी युवाओं ने रोजगार की दुनिया में रखा पहला कदम— मुफ्त में काम करने का सुनहरा मौका!"


"संयमी परिवारों ने त्याग और आत्म-संतोष से महंगाई को दी मात!"


"आरोग्य-कामी नागरिकों ने अस्पतालों की निर्भरता घटाई!"


अब जरूरत है कि यह प्रयोग और आगे बढ़े


किसानों को ‘अन्न-त्यागी’ बना दिया जाए। मजदूरों को ‘परिश्रम-सेवी’ का दर्जा मिले। नौकरी ढूंढने वालों को ‘संभावना-विशेषज्ञ’ कहा जाए। सरकार को बधाई। उसने भाषा की ताकत पहचानी। अब रोजगार की जरूरत नहीं, शब्दों की कलाबाजी ही काफी है। देश आगे बढ़ रहा है। युवा आकांक्षी हो गए हैं। भूख, गरीबी और बेरोजगारी अब बीते ज़माने की बातें हैं। कम से कम हम बातों के धनी तो कहे ही जाएंगे। हमारे युवा आगे बढ़ रहे हैं, मगर नौकरी पीछे हट रही है। बेरोजगार शब्द में बासीपन की बू आ रही थी। नया जमाना, नई परिभाषाएँ! अब युवा ‘आकांक्षी’ हैं। सुनने में कितना शानदार लगता है! जैसे कोई बड़ा लक्ष्य हो, कोई ऊँची उड़ान हो।


पलक झपकते प्रॉब्लम का सॉल्यूशन


मध्य प्रदेश ने इस क्रांतिकारी सोच को अपनाया। बधाई हो ऐसे थिंकटैंकों को। यूं ही नहीं मध्यप्रदेश को भारत का दिल कहा जाता है। पलक झपकते प्रॉब्लम का सॉल्यूशन बताया और बेरोजगारों पर बिल फाड़ आकांक्षी बना दिया। वाह! क्या मास्टर स्ट्रोक है! अब जब आंकड़ों में बेरोजगारी नहीं दिखेगी, तो समस्या भी नहीं रहेगी। जैसे पुराने ज़माने में कहा जाता था— न रहेगा बांस, न बजेगी बांसुरी। अब सोचिए, अगर यही प्रयोग देश के अन्य क्षेत्रों में लागू हो जाए तो? भूखा इंसान अब ‘संयमी’ कहलाए। गरीब को ‘संतोषी’ बना दिया जाए। बीमार को ‘आरोग्य-कामी’ घोषित कर दें। बस, शब्द बदलने की देरी है, समस्याएँ खुद-ब-खुद गायब हो जाएँगी। 


लेकिन समस्या यह है कि हकीकत जिद्दी होती है। उसे शब्दों की जादूगरी से ज्यादा फर्क नहीं पड़ता। आंकड़े बताते हैं कि 83% इंजीनियरिंग ग्रेजुएट और 46% बिजनेस ग्रेजुएट को इंटर्नशिप तक नहीं मिली। नौकरी तो दूर की बात है। लेकिन कोई चिंता नहीं! ये भी अब 'आकांक्षी' कहलाएंगे और ‘गौरव का अनुभव’ करेंगे।


28 मार्च 2025

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खोती जा रहीं उम्मीदें

 



विजय शंकर पांडेय 

अब बहस करने का मन नहीं करता

लोग जीत जाते हैं

हम बस मुस्कुरा देते हैं

पहले दुनिया बदलनी थी

अब चैन से सोना है

कभी रिश्ते निभाने को भागते थे

अब कॉल तक काट देते हैं

उम्मीदें भी बड़ी सयानी हो गईं

अब किसी से ज्यादा अपेक्षा नहीं रखतीं

बचपन में ख्वाब आसमान छूते थे

अब छत की सीलिंग तक सीमित हैं

कभी बातें खत्म नहीं होती थीं

अब शुरू ही नहीं होतीं

जोश तो अब भी है

मगर इच्छाएं ठिठक जाती है

मेमोरी फोन में भरती जा रही है

दिमाग से मिटती जा रही है

कभी दुनिया जीतनी थी

अब बस शांति चाहिए

कमरे में खामोशी है

बाहर शोर बहुत है

मगर फर्क ही कहाँ पड़ता है? 

पता नहीं यह वक्त का तकाज़ा है, 

या खोती जा रहीं उम्मीदें।



26 मार्च 2025 


पूरा घर मुंहनोचवा या चोटीकटवा टाइप आतंक के साए में



विजय शंकर पांडेय 

मेरा पूरा घर मुंहनोचवा या चोटीकटवा टाइप आतंक के साए था। मैंने पूछा - क्या हुआ? चेहरे पर किसी सुपर पॉवर का आतंक लिए पत्नी बोली - छोटू के अंडरवियर पता नहीं कैसे गायब होते जा रहे हैं।

सहेज कर कपड़े तो सलीके से रखती नहीं हो। मिलेंगे कैसे..... खैर छोड़ो.... नया ले आते हैं फिलहाल।

जितना संभव होता है कर देती हूं। और तो कोई घर के काम में मदद करता नहीं है। अगर मैं न एलर्ट रहूं तो बाप-बेटे रोज नहाने के बाद तौलिया लपेटे ही दिन काटोगे।

खैर बेवजह तिल का ताड़ बनाने के नए अंडरवियर बनियान खरीदने की शर्त पर एमओयू पर अदृश्य हस्ताक्षर हो गया। मगर यह घटना हफ्ते दस दिन के अंतराल में तीन या चार बार हो गई. अब कितना नया खरीदा जाए। धीरे-धीरे मामला यहां तक बढ़ा कि घर के अन्य सदस्यों के भी कपड़े गायब होने लगे। यहां तक कि मेरे भी... मीडिया वालों से करीबी संपर्क होने के बावजूद बस मैंने प्रेस कांफ्रेंस नहीं किया था....हालात कंट्रोल से बाहर हो चुके थे। घर के चारों तरफ कई चक्कर लगाया, अपने छत पर भी खंगाला, मगर कोई सुराग हाथ नहीं लगा।

संकट गहराता जा रहा था। यूपी में पत्रकारिता करते हुए पहली बार मुंहनोचवा टाइप फीलिंग आने लगी। यह घटना दो-तीन साल पहले की है। करीब 15-16 साल पहले मिर्जापुर के तत्कालीन डीएम ने मुंहनोचवा का साक्षात दर्शन कर तहलका मचा दिया था। इस खबर को छापने के बाद अगले दिन एक पड़ोसी से बहस हो गई थी। मेरे तर्कों का जवाब न दे पाने की स्थिति में उन्होंने मुझे ‘शाप’ देते हुए कहा - जाके पाँव न फटी बिवाई, वह क्या जाने पीर पराई ... जब मुंहनोचवा से पाला पड़ेगा न बच्चू... तब सारी पत्रकारिता और संपादकी धरी रह जाएगी। एक बार तो मुझे लगा कि शाप अब असर दिखा रहा है।

मेरी टेंशन की वजह दूसरी भी थी। इस मकान को हम पूरी तरह सुरक्षित मान रहे थे। हालांकि पत्रकार के घर में होगा भी क्या... कोई अंबानी का बंगला थोड़े ही है। फिर भी जो कपड़े, बर्तन इत्यादि है, वही तो थाती है। अगर कोई इस तरह की वारदात को अंजाम दे रहा है तो क्या गारंटी है कि वह अपने कारोबार का विस्तार न करे। बच्चों पर तो कोई खास प्रभाव नहीं था, मगर पत्नी पड़ोस के मंदिर में प्रसाद इत्यादि चढ़ाने का काल्पनिक वादा कर चुकी थी। संभव है कुछ और भी कमिटमेंट की हो। मगर मारे गुस्से मुझे नहीं बताई। उनकी नजर में सबसे बड़ा अपराधी मैं ही था। निठल्ले पत्रकार से शादी करने की जो फीलिंग उनके चेहरे पर साफ झलक रही थी, वह शब्दों में बयान करने की क्षमता मेरे पास नहीं है। ऐसा लगता किसी दूसरे प्रोफेशनल से ब्याही होती तो अब तक सीबीआई जांच की मंजूरी मिल गई होती।

खैर... भोर के चार-पांच बजे के करीब अचानक मेरी बालकनी में हलचल हुई. खिड़कियों से बाहर झांका तो बंदरों का झुंड दिखाई पड़ा..... कमरे से एक पाइप का टुकड़ा लिए बाहर निकलने की कोशिश करने लगा तो एक बड़ा सा बंदर मोगांबो टाइप आंखें तरेरते हुए गुर्राया। मैं पीछे हट गया। उथल पुथल मचाने के बाद वे जब जाने लगे तो वहां सूखने के लिए फैलाए गए एक-दो बनियान पहनते हुए रवाना हुए। लूट की वारदात को मेरी आंखों को सामने अंजाम दिया जा रहा था, मैं असहाय था....थोड़ी देर बाद मैं हिम्मत जुटाकर उनका पीछा किया, मगर वे निकल लिए। उनके जाने के रास्ते का अनुमान लगा मैं छत के ऊपर टंकी रखने के लिए बनाए गए छज्जे पर जब चढ़ा तो हतप्रभ रह गया... मेरे घर के कपड़े थोक के भाव में वहां पड़े मिले.... वहां ऐसे भी कपड़े मिले जिसके गायब होने की हमे अभी भनक भी नहीं थी।

#जिंदगी_के_सफर_में


14 जुलाई 2018

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संस्कृति की आदिम लय का शहर बनारस

 हर गली में आपको ‘बाबा’ मिलेंगे और हर चौराहे पर ‘गुरु’




विजय शंकर पांडेय







बनारस की हर गली में आपको ‘बाबा’ और हर चौराहे पर ‘गुरु’ मिल जाएंगे। बनारस की तासीर समझनी हो तो यह जुमला ही काफी है - ई बनारस हव राजा... मिजाज में अइबा त दिल में समइब, अकड़ में अइबा त तोहरे जइसन 56 देखले हईं। कहा तो यहां तक जाता है कि रांड़, सांड़, सीढ़ी, संन्यासी, इनसे बचे वो सेवे काशी। कारण बनारस में सब गुरु ही हैं, केहू नाही चेला। जब बाकी दुनिया बेड टी की चुस्की ले रही होती है, बनारसी दिव्य निपटान के बाद गरमागरम कचौड़ी और जलेबी लेकर टंच हो चुका होता है। बनारस में लस्सी पी नहीं, भिड़ाई जाती है। इसीलिए कहा जाता है कि जो मजा बनारस में, न पेरिस न फारस में। 

बनारसियों को सबको कनफ्यूज करने में बड़ा मजा आता है। रेहन पर रग्घू उपन्यास में काशीनाथ सिंह लिखते हैं - “शरीफ’ इंसान का मतलब है निरर्थक आदमी। भले आदमी का मतलब है ‘कायर’ आदमी। जब कोई आपको ‘विद्वान’ कहे तो उसका अर्थ ‘मूर्ख समझिए। और जब कोई ‘सम्मानित’ कहे तो ‘दयनीय’ समझिए।” कवि केदारनाथ सिंह के शब्दों में- 

तुमने कभी देखा है

ख़ाली कटोरों में वसंत का उतरना!

यह शहर इसी तरह खुलता है

इसी तरह भरता

और ख़ाली होता है यह शहर


दुनिया के दिल का नुक़्ता है बनारस – ग़ालिब

मिर्ज़ा ग़ालिब की माने तो बनारस दुनिया के दिल का नुक़्ता है। अपनी मशहूर बनारस यात्रा के दौरान ग़ालिब ने जो कुछ भी देखा, उसे अपने एक मसनवी 'चिराग-ए-दैर' में दर्ज कर लिया। कुल तीन हफ्ते गुजारने के बाद ग़ालिब ने लिखा ''जब मैं बनारस में दाखिल हुआ, उस दिन पूरब की तरफ़ से जान बख़्शने वाली, जन्नत की- सी हवा चली, जिसने मेरे बदन को तवानाई अता की और दिल में एक रूह फूंक दी। उस हवा के करिश्माई असर ने मेरे जिस्म को फ़तह के झण्डे की तरह बुलंद कर दिया। ठण्डी हवा की लहरों ने मेरे बदन की कमजोरी दूर कर दी।'' 


बनारस इज़ ओल्डर दैन द हिस्ट्री - मार्क ट्वेन

संस्कृति की आदिम लय का शहर है बनारस। सभ्यता का जल यहीं से जाता है, सभ्यता की राख यहीं आती है। इस बात की तस्दीक 1896 में बनारस पहुंचे अमेरिकी लेखक मार्क ट्वेन ने अपने यात्रा वृतांत 'फॉलोविंग दी इक्वेटर' में भी की है। वे लिखते हैं कि 'बनारस इज़ ओल्डर दैन द हिस्ट्री' यानी ये शहर इतिहास से भी पुराना है। जाहिर है सौ साल से भी अधिक समय पहले लिखी उनकी यह बात आज भी इस शहर के चरित्र पर सटीक बैठती है। तकरीबन 4,000 साल पुरानी एक शहरी सभ्यता के भग्नावशेष वाराणसी के बभनियांव में अभी हाल ही में मिले हैं, तो वहीं महाजनपदों के युग में काशी एक महत्वपूर्ण और विशाल महाजनपद रह चुकी थी। 



सदियों से धार्मिक सहअस्तित्व का प्रतीक रहा है बनारस

बनारस, हिंदूओं के अलावा जैन, बौद्ध, कबीरपंथी, रैदासी, अघोर जैसे मतों और संप्रदायों का भी पवित्र तीर्थस्थल है। जाहिर है यह शहर सदियों से धार्मिक सहअस्तित्व का प्रतीक रहा है। जैन साहित्य के अनुसार, 9वीं शताब्दी में वाराणसी पर पार्श्वनाथ के पिता राजा अश्वसेन का शासन था। महावीर ने वाराणसी और सारनाथ में उपदेश दिए थे। बनारस में पार्श्वनाथ जैन मंदिर भी है। काशी में चार जैन तीर्थंकरों सुपार्श्वनाथ, चंद्रप्रभु, श्रेयांसनाथ, पार्श्वनाथ का जन्म हुआ था। वाराणसी के सारनाथ में ही गौतम बुद्ध ने भी अपना पहला उपदेश दिया था। पांच भिक्षुओं के साथ यहीं पर उन्होंने बौद्ध संघ की स्थापना की थी। अतः यदि यह कहा जाए कि बौद्ध धर्म की स्थापना बनारस में हुई तो यह अतिशयोक्ति नहीं होगी। जाहिर है, शुरू से ही बनारस धर्म, संस्कृति और व्यापार के प्रमुख केंद्र के रूप में जाना जाता रहा है। 


धर्म, साहित्य, भक्ति, संगीत, कला का केंद्र है बनारस

शैव मत के केंद्र के रूप में आदि शंकराचार्य ने आठवीं शताब्दी में इसे प्रसिद्ध किया।  शिव के द्वादश ज्योतिर्लिंगों में से एक काशी विश्वनाथ बनारस में ही स्थित है, जो हिंदुओं के प्रमुख तीर्थों में से एक माना जाता है। कबीर, रैदास से लेकर तुलसीदास ने भी अपने रामचरितमानस की रचना बनारस में ही की। बनारस को यूं ही नहीं भारत की सांस्कृतिक राजधानी कहा जाता है, अरसे से धर्म, साहित्य, भक्ति, संगीत, कला के केंद्र के रूप में भी यह शहर अपना एक अलग स्थान रखता है। वाराणसी को हिन्दी साहित्य का केंद्र तो माना ही जाता है। यहां हिन्दूस्तानी शास्त्रीय संगीत का बनारस घराना जन्मा और विकसित हुआ। कबीर के अलावा भारतेंदु हरिश्चंद्र, प्रेमचंद, जयशंकर प्रसाद, शिव प्रसाद सिंह, धूमिल, आचार्य रामचंद्र शुक्ल, आचार्य हज़ारी प्रसाद द्विवेदी, गीतकार शंभूनाथ सिंह, आलोचक बच्चन सिंह, नामवर सिंह, कवि केदारनाथ सिंह, रामदरश मिश्र, पत्रकार-लेखक विष्णु चंद्र शर्मा आदि का इस शहर से गहरा नाता रहा है। इसके अलावा उस्ताद बिस्मिल्लाह खां, पंडित रविशंकर, गिरिजा देवी, सितारा देवी, पंडित छन्नूलाल मिश्र, राजन-साजन मिश्र, किशन महाराज, लच्छू महाराज, कमला शंकर, प्रेम लता शर्मा, जयदेव सिंह, जोतिन भट्टाचार्य, विकास महाराज, बाबा अलाउद्दीन खान, मियां तानसेन की वजह से बनारस की अलग पहचान है। 


सर्वविद्या की राजधानी

बनारस हिंदू विश्वविद्यालय को सर्वविद्या की राजधानी इसलिए कहा जाता है क्योंकि यह प्राचीन ज्ञान और आधुनिक ज्ञान के संगम का प्रतीक है। बीएचयू के अलावा इस शहर में 5 और विश्वविद्यालय हैं- महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ, संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय, केंद्रीय उच्च तिब्बती अध्ययन संस्थान, शासकीय आयुर्वेदिक चिकित्सालय एवं महाविद्यालय और अशोक इंस्टीट्यूट। वाराणसी को मुक्तिभूमि, शिवपुरी, विश्वनाथनगरी, मंदिरों का शहर, भारत की धार्मिक राजधानी, भगवान शिव की नगरी और ज्ञान नगरी के नाम से भी जाना जाता है। वाराणसी का मूल नाम काशी था। पौराणिक कथाओं के मुताबिक, इसकी स्थापना भगवान शिव ने लगभग 5,000 साल पहले की थी। वाराणसी को बनारस भी कहा जाता है। मुगलकाल और अंग्रेज़ी शासन के दौरान इसका आधिकारिक नाम बनारस ही था। आजादी के बाद 24 मई, 1956 को इसका आधिकारिक नाम वाराणसी कर दिया गया। वैसे इस शहर का नाम आनंदकानन, महासंशन, रूद्रवा, कशिका, मंदिरों का शहर, त्रिपुरारिराजनगरी के अलावा शंकरपुरी, जितवारी, आनंदरूपा, श्रीनगरी, गौरीमुख, महापुरी, तपस्थली, धर्मक्षेत्र, अर्लकपुरी, जयंशिला, पुष्पावती, पोटली, हरिक्षेत्र, विष्णुपुरी, शिवराजधानी, कसीनगर, काशीग्राम भी है। भारत में यह एकमात्र ऐसा अनोखा शहर है, जिसके 50 से भी ज्यादा नाम हैं।


भोलेनाथ की नगरी को नया लुक देने की कवायद

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2014 से 2024 के बीच वाराणसी को करीब 60 हज़ार करोड़ रुपये की परियोजनाओं की सौगात दी है। इन परियोजनाओं के ज़रिए वाराणसी में कई बदलाव हुए हैं। काशी विश्वनाथ कॉरिडोर बना, घाटों का कायाकल्प किया गया, घाट यात्रा और क्रूज़ पर्यटन को बढ़ावा मिला, गंगा-पर्यटन पर ज़्यादा ध्यान दिया गया। बाबा भोले की नगरी वाराणसी को नया लुक देने की तैयारी शुरू कर दी गई है। घाटों-मंदिरों और गलियों के शहर बनारस में बदलाव के दौर में नई काशी बसाने की परियोजना को धरातल पर उतारने की ओर कदम बढ़ाए गए हैं। नई काशी योजना के तहत शहर के विस्तार के लिए बाबतपुर एयरपोर्ट मार्ग पर शहर की आउटर रिंग रोड किनारे छह नई टाउनशिप (आवासीय योजना) विकसित करने के साथ ही अस्पतालों के लिए मेडिसिटी, उद्योग और व्यापार के लिए वर्ल्ड सिटी, शिक्षण संस्थानों के लिए विद्या निकेतन की परिकल्पना की गई है।


एक नजर वाराणसी में हुए बड़े विकास कार्यों पर

गंगा के घाटों का पुनरुद्धार और विस्तार का काम हुआ। 

गंगा सफाई के लिए नमामि गंगे योजना चलाई गई। 

अंतरराष्ट्रीय कन्वेंशन सेंटर 'रुद्राक्ष' शुरू किया गया। 

वाराणसी में 140 मिलियन लीटर प्रतिदिन की क्षमता वाला एसटीपी निर्माण हुआ। अब तक कुल 10 एसटीपी बनाए गए। 

हैंडलूम को बढ़ावा देने के लिए ट्रेड फैसिलिटी सेंटर बनाया गया। 

बिजली के तारों को अंडरग्राउंड किया गया। 

वाराणसी से प्रयागराज, गोरखपुर, आजमगढ़ समेत अन्य जिलों को जोड़ने वाले हाइवे का चौड़ीकरण किया गया। 

750 करोड़ रुपये से अधिक की लागत से रिंग रोड बना। 

डीएलडब्लू का 266 करोड़ रुपये की लागत से पुनरुद्धार किया गया। 

रेल नेटवर्क और रेलवे स्टेशनों का विकास हुआ है। 

रामनगर मार्ग पर गंगा के ऊपर पुल, चौराहों का सुंदरीकरण समेत कई काम हैं, जिसने काशी की तस्वीर बदलकर रख दी है।